Thursday, February 14, 2008

प्यार - कुछ रचनाएँ


``गर रोयी हूँ ज़िन्दगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए``

तेरी ख़ामोश सुबकियाँ तेरे भीतर गिरते आँसू
और बड़ी-बड़ी सूनी आँखें
उस शाम के घिरते अँधियारे के साथ
मुझ तक पहुँचते हैं अब तक
ए अपने वीरान बरामदे में खड़ी अकेली लड़की

हमेशा यह होता है
जब किसी को बेख़ुदी की हद तक चाहना
एक बेहतरीन सपने की तरह टूट जाता है
लेकिन सत्रह बरस की तू भला इसे क्या जानती थी

आख़िर हुआ क्या था यह पूछना
उस असह तकलीफ़ को सस्ता बना देता है
जिसे ठीक-ठीक बयान नहीं किया जा सकता
हज़ारों वजहें बन जाती हैं दिल टूटने की
वह भी पहले प्रेम में

न बता तू न बता इसे रहने दे एक दफ़नायी हुई बेहद निजी पीर
कितनी ख़ुशियाँ कहीं की नहीं रहतीं
कितनी कल्पनाएँ कितने भविष्य
बेरहम परछाइयाँ बन जाते हैं जिन्हें बाँधा नहीं जा सकता
इतनी सारी शादमानी लेकर क्यों आती है चाहत पहली बार
कि उसका न रहना बेजान कर जाता है समूचे वजूद को

कितनी ज़िन्दगी तेरी बीती थी उस वक़्त तक
चंद दिनों पहले ही तुझे अहसास हुआ होगा
कि ज़िन्दगी किसे कहते हैं जिसमें तूने ख़ुद को ख़ुद
बनते हुए शायद पहचाना होगा
लेकिन प्रेम में पड़ते ही ज़िन्दगी पहाड़ जैसी लगने लगती है ज़िन्दगी बनती हुई

यह पहली बार किस-किस भेष में और लौटेगा?
और यह रोना किसी एक के लिए?
क्या तू फिर नहीं रोयेगी
हर बार उसी तरह लेकिन हमेशा दूसरी तरह?

ऐसा बहुत होता है लड़की
क़िस्मत और इन्सान सिर्फ़ एक बार नहीं देते फ़रेब
हो सके तो किसी ऐसे लम्हे का ख़्वाब देख
जो आये तो तुझे लगे कि तू भूल गयी है
अपना वह पहली बार रोना
और याद आये भी तो तू हौले से हँसे अकेले में
उस दुखियारी लड़की के बालापन पर
जो अपनी बड़ी-बड़ी भीगी आँखों से तक रही थी
अपने वीरान बरामदे का अँधियारा उस शाम
-विष्णु खरे
 ***

``लगता है प्रेम सफल हो या असफल, वह जीवन की दिशा, उसकी गतिकी और उसकी त्रिज्या को हमेशा बदल देता है।``
-उदय प्रकाश की यह टिपण्णी एक उदास कवि को लेकर लिखे गए उनके लेख में थी।
***


तुम्हारा प्यार

यह स्त्री डरी हुई है
इस तरह
जैसे इसी के नाते
इसे मोहलत मिली हुई है

अपने शिशुओं को जहां-तहां छिपा कर
वह हर रोज़ कई बार मुस्कुराती
तुम्हारी दूरबीन के सामने से गुज़रती है

यह उसके अंदर का डर है
जो तुममें नशा पैदा करता है

और जिसे तुम प्यार कहते हो
-मनमोहन
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एक परिंदा उड़ता है

एक परिंदा उड़ता है
मुझसे पूछे बिना
मुझे बताये बिना
उड़ता है परिंदा एक
मेरे भीतर
-मनमोहन
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प्रेम


वह कोई बहुत बड़ा मीर था
जिसने कहा प्रेम एक भारी पत्थर है
कैसे उठेगा तुझ जैसे कमज़ोर से

मैंने सोचा
इसे उठाऊँ टुकड़ों-टुकड़ों में

पर तब ह कहाँ होगा प्रेम
वह तो होगा एक हत्याकांड।
-मंगलेश डबराल
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3 comments:

manjula said...

बहुत बढिया

manjula said...

आपके ब्‍लाग में ही मनमोहन जी को पहली बार पढा है. मन की गहराईयों को छुआ है उन्‍होने. क्‍या उनकी कविता की कोई किताब प्रकाशित हुई है आप बता सकते हैं कहॉ मिल सकती है

Ek ziddi dhun said...

manjula, aap apna adress mujhe mail kar deejiye, mai.n bhej doonga