Wednesday, March 26, 2008

आरके, राजबीर, गिल आदि-आदि के रेकॉर्ड

हरियाणा काडर का सीनियर पुलिस अफसर आर के शर्मा आखिरकार पत्रकार शिवानी की हत्या के केस में दोषी करार दिया गया। अखबारों के मुताबिक उसके चेहरे पर राहत थी और वह ख़बरों में संयम बरतने की नसीहत भी दे रहा था। ज़ाहिर है, उसे मिली उम्रकैद राहत की तरह ही है। मानकर चला जाता है कि अगली कोर्ट में इसके कम हो जाने की गुंजाइश रहती है। गौरतलब है अदालत की यह टिपण्णी कि शर्मा का आपराधिक इतिहास नहीं रहा है और उसका सर्विस रेकॉर्ड भी अच्छा रहा है। ज़ाहिर है कि पुलिस के ऐसे अफसरों का आपराधिक रेकॉर्ड हो भी कैसे सकता है। सर्विस रेकॉर्ड भी अजब चीज है। पुलिसअफसर का रेकॉर्ड तो और भी ज़्यादा। कई अफसरों का रेकॉर्ड तो `अपराधियों' को कथित एन्कोउन्टर में मारकर चमकता रहता है। जो लोग सच को झुठलाना नहीं चाहते, वे जानते हैं कि लगभग ९९ फीसदी एन्कोउन्टर फर्जी होते हैं और कई बार एक पुलिस अफसर अपने इलाके के किसी आपराधिक रेकॉर्ड के आदमी को दूसरे प्रदेश के अपने दोस्त अफसर को सौंप देता है ताकि वह उसे मारकर अपना रेकॉर्ड चमका सके, आउट ऑफ़ टर्न परमोशन पा सके। हद तो तब होती है, जब एन्कोउन्टर स्पेशलिस्टकहे जाने वाले पुलिस अफसर बाकायदा अपराधियों के टूल की तरह काम करने लगते हैं। ऐसे पुलिस अफसर एक माफिया से मोटा पैसा लेकर उसके दुश्मन का कत्ल कर देते हैं। इस तरह की आपराधिक करतूतों को यह कहकर सही ठहराने की कोशिश की जाती है कि आख़िर बदमाश तो मारा ही गया । ऐसा कहने वाले लोग यह समझने की कोशिश नहीं करते कि एक पुलिस अफसर का माफिया का शूटर बन जाना कैसी बात है। जहाँ तक आम आदमी के आपराधिक रेकॉर्ड की बात है तो वह मामूली मुकदमों से ही लगातार ख़राब होता रह सकता है। अक्सर पुलिस किसी एक केस में फंस गए आदमी पर ही तमाम केस थोपती रहती है।

बहरहाल, मैं आर के शर्मा के बेहतर रेकॉर्ड के बारे में सोच ही रहा था कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहे जाने वाले दिल्ली के पुलिस अफसर राजबीर के कत्ल की ख़बर आयी। जिस तरह गुडगाँव के एक प्रोपर्टी डीलर के यहाँ राजबीर का कत्ल हुआ, उसी से काफी बातें साफ हो जाती हैं। नेचुरल जस्टिस जैसी बात कहने वाले भी हैं। लेकिन हम आर के शर्मा की बात कर रहे थे जिसका सर्विस रेकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है और जिसने शिवानी के साथ प्रेम सम्बन्ध बनाये और माँ बनने पर वह शादी के लिए दबाव देने लगी तो उसका कत्ल करा दिया। ज़ाहिर है ऐसे कत्ल बेहद ठंडे दिमाग से कराये जाते हैं और इतने बड़े अफसर के फंसने के चांस यानि रेकॉर्ड ख़राब होने के चांस भी कम ही होते हैं।

इन दिनों होकी को `सुधारने' में जुटे गिल साहब का रेकॉर्ड तो पंजाब में आतंकवाद खत्म करने का है। ऐसे में उन्हें किसी भी महिला कि बेइज्जती करने का हक़ मिल जाता है क्या? जिस महिला से उन्होंने छेड़खानी की थी, वह अफसर ही थी लेकिन उस पर कितना दबाव रहा, केस न लड़ने का, यह सभी को मालूम है। गिल को लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद दोषी तो माना गया, लेकिन महज जुर्माना किया गया। पैसे वाले लोग तो यों भी औरतों को पैसे से खरीदना चाहते हैं...औरत की डिग्निटी की कीमत रुपयों का जुर्माना ? लेकिन मामला मर्द अफसरों के रेकॉर्ड का है...मर्दों का रेकॉर्ड ही काफी होता है, फिर मर्द अफसर....

Thursday, March 20, 2008

होली, हुसैन और नज़ीर


हुसैन दुनिया के बड़े चित्रकार हैं, पर वह हिंदुस्तान में पैदा हुए हैं, यहाँ की मिट्टी में पले-बढे हैं, और यही मिट्टी उनके चित्रों में ढंग-ढंग से खिल उठती है। भारतीय त्यौहार, मिथ और तमाम सांस्कृतिक अनूठेपन उनके यहाँ और भी ज्यादा जीवंत, और भी ज्यादा मानीखेज, और भी ज्यादा उत्सवधर्मी हो उठते हैं। जाहिर है, होली हिन्दुस्तान का एक निराला त्यौहार है-रंगों का त्यौहार. तो यह भी स्वाभाविक है कि रंगों के इस उस्ताद के यहाँ होली का उत्सव भी मिलेगा। उसकी एक बानगी होली के मौके पर आपके लिए- (इस अफ़सोस के साथ कि इस त्यौहार के मौके पर वो निर्वासन की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं, उन की वजह से जिन्होंने देश में खून की होलियाँ खेली हैं और जिन्होंने देश की तबाही के मंज़र के सिवा कभी कुछ नही रचा है )।
नज़ीर अकबराबादी भी हुए हैं एक शायर, इसी मिटटी के..होली की मस्ती का रंग उनके यहाँ भी निराला है..उसका भी लुत्फ़ लीजिये (अब क्या कीजे, वो मरहूम हैं, वर्ना `संस्कृति` के कोतवाल उन्हें भी देशनिकाला दिला देते ) ...
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली क

परियों के रंग दमकते हों
खूँ शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की

नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की

मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली क

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आप नजीर की होली यहाँ सुन भी सकते हैं-http://www.dhaiakhar.blogspot.com/

Thursday, March 13, 2008

हमीं हम हमीं हम---कुछ बातें

पिछले दिनों ठाकरे परिवार की करतूतों ने सभी संवेदनशील लोगों को झकझोर दिया। इस बारे में उत्तर भारत के प्रतिनिधि बनने वालों के बयान भी अजीब ही थे। इसी बीच अखबार में ठाकरे का एक कार्टून छपा जिसमें मुम्बई पर अकेले बैठा यह शख्स बोलते दिखाया गया कि यहाँ में अकेला रहूँगा। इसी बीच मुझे एनएसडी के दोस्त से मनमोहन की ये कविता मिली जो काफी पहले सांप्रदायिक ताकतों को ही लक्ष्य करके लिखी गई थी. मैं इसे ब्लॉग पर देना चाह रहा था पर इस बीच ब्लॉग की दुनिया में आए प्रगतिशीलों को ही बचकाने ढंग से लड़ते पाकर और दुःख हुआ। लगा वहां भी, वैचारिक विमर्श और संकट में मिलजुलकर बड़ी लड़ाई के लिए तैयार होने के बजाय एक-दूसरे को नीचा दिखाने का भाव गहरा हो रहा है। एक तरफ़ पूंजीवादी, साम्राज्यवादी और सांप्रदायिक ताकतों ने मिलकर आम आदमी से लेकर न्याय के पक्षधर लोगों को भयंकर ढंग से अकेला कर दिया है और उस पर जिन्हें कुछ करना था, वे आपस में हमीं हम पर उतर आए हैं। बहरहाल यह कविता सांप्रदायिक ताकतों को लक्ष्य करके ही दे रहा हूँ पर आत्मालोचना और आत्मसंघर्ष हम सबके लिए लाजिमी है.....

हमीं हम हमीं हम

हमीं हम हमीं हम
रहेंगे जहाँ में
हमीं हम हमीं हम
ज़मीं आसमां में
हमीं हम हमीं हम
नफीरी ये बाजे
नगाडे ये तासे
कि बजता है डंका
धमाधम धमाधम
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम

ये खुखरी ये छुरियां
ये त्रिशूल तेगे
ये फरसे में बल्लम
ये लकदम चमाचम
ये नफरत का परचम
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम

ये अपनी ज़मीं है
ये खाली कर लो
वो अपनी ज़मीं है
उसे नाप डालो
ये अपनी ही गलियां
ये अपनी ही नदियाँ
कि खूनों के धारे
यहाँ पर बहा दो
यहाँ वहां तक
ये लाशें बिछा दो
सरों को उड़ाते
धडों को गिराते
ये गाओ तराना
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम

न सोचो ये बालक है
बूढा है क्या है
न सोचो ये भाई है
बेटी है माँ है
पड़ोसी जो सुख दुःख का
साथी रहा है
न सोचो कि इसकी है
किसकी खता है
न सोचो न सोचो
न सोचो ये क्या है

अरे तू है गुरखा
अरे तू है मराठा
तू बामन का जाया
तो क्या मोह माया
ओ लोरिक की सेना
ओ छत्री की सेना
ये देखो कि बैरी का
साया बचे ना

यही है यही है
जो आगे अडा है
यही है यही है
जो सिर पर चढ़ा है
हाँ ये भी ये भी
जो पीछे खडा है
ये दायें खडा है
ये बाएं खडा है
खडा है खडा है
खडा है खडा है
अरे जल्द थामो
कि जाने न पाए
कि चीखे पै कुछ भी
बताने न पाए
कि पलटो, कि काटो
कि रस्ता बनाओ
अब कैसा रहम
और कैसा करम, हाँ
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम
रहेंगे जहां में
हमीं हम ज़मीं पे
हमीं आस्मां पे।
-मनमोहन

Tuesday, March 11, 2008

गाजा की शहीद रशेल कूरी

क्या आपको गाजा की शहीद रशेल कूरी की याद आ रही है? भगत सिंह की उम्र की ये लड़की करीब 6 बरस पहले गाज़ा में इस्रायल के बुलडोज़रों को रोकने की कोशिश में शहीद हुई थी। अमेरिका के साम्राज्यवादी निरंकुश शासकों के जूतों को भी चाटने को उतावले रहने वालों को हैरानी हो सकती है कि यह न्याय की चाहत रखने वाली और उसके लिए गाज़ा में शहादत देने वाली युवा लड़की अमेरिका की ही रहने वाली थी। एक पूरी आबादी को उजाड़ने की मुहिम को देख कर उसने शहादत से पहले अपने परिवार को जो मेल भेजे थे, उनमें भी उसकी न्याय के प्रति क़ुर्बानी और संवेदनशीलता की झलक थी। इसे आत्मतुष्ट, फर्जी लोग नहीं समझ सकते, वे तो गुजरात में भी जश्न मनाते हैं।
.......दरअसल मोहल्ला ब्लॉग पर फिलिस्तीन में हो रहे दमन के खिलाफ एकजुटता दर्शाने की अपील की गई थी। अब बहुत से लोगों को इस पर एतराज हो गया और वे बेशर्म जुमलों के साथ प्रतिकिरिया में आ गए। मैंने बेहद दुखी मन से ये याद दिलाने के लिए कि अन्याय का विरोध करना सिर्फ़ फिलिस्तीन के लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं है। वे लड़ ही रहे हैं क्योंकि ये लड़ाई उनके हिस्से में आई है पर अमेरिकाजिसने ये कत्ल-ओ-गारत थोप राखी है, के रहने वाले न्यायप्रिय लोग भी अपने शाशकों के स्टैंड की परवाह किए बिना न्याय के पक्ष में खड़े होते हैं। और मैंने रशेल कूरी को याद किया। मोहल्ला ने इस टिपण्णी के साथ रशेल कूरी का वीडियो भी जोडा है, और हम इससे से प्रेरणा ले सकते हैं।

Saturday, March 8, 2008

आदमखोर - शुभा


एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियां अलग कर देते हो
तुम उसकी जांघें अलग कर देते हो

तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर! तुम इसे हिंसा नहीं मानते


आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे

अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुंह हाथ धोता है और
खाना खाता है

रहता है बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह
शरीफ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह।
-शुभा

सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच - शुभा

सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियां खाना
और गिरगिटों से बातें करना।
-शुभा

अकलमंदी और मूर्खता - शुभा

स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएं होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फोकस करना होगा।
- शुभा

महिला दिवस?

जब हम पृथ्वी की आधी आबादी के ऊपर अनचाही विकलांगता मढ़ने के दोहरे दुष्प्रभावों को देखते हैं - एक तरफ उनसे जीवन का सबसे सहज, स्वाभाविक और ऊंचे दर्जे का आनंद छीन जाता है; और दूसरी तरफ जीवन उनके लिए उकताहट, निराशा और एक गहरी असंतुष्टि का पर्याय बन जाता है - तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि पृथ्वी पर एक बेहतर जिंदगी के मानवीय संघर्ष में स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक प्रमुख और बहुत महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए। इस सम्बन्ध में पुरुषों के खोखले भय सिर्फ़ स्त्रियों को ही नहीं, बल्कि पूरी मानवता को ही बन्धनग्रस्त किए हुए हैं - क्योंकि मानवीय प्रसन्नता के आधे झरनों के सूखने से पूरे वातावरण के स्वास्थ्य, सम्पन्नता और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है। - जॉन स्टुअर्ट मिल की किताब `द सब्जेक्शन ऑफ़ विमेन` के हिन्दी अनुवाद `स्त्री और पराधीनता से`

Wednesday, March 5, 2008

देश हमारा

देश हमारा कितना प्यारा
बुश की भी आँखों का तारा

डंडा उनका मूंछें अपनी
कैसा अच्छा मिला सहारा

मूंछें ऊंची रहें हमारी
डंडा ऊंचा रहे तुम्हारा

ना फिर कोई आँख उठाए
ना फिर कोई आफत आए

बम से अपने बच्चे खेलें
दुनिया को हाथों में लेलें

भूख गरीबी और बेकारी
खाली-पीली बातें सारी

देश-वेश और जनता-वनता
इन सबसे कुछ काम न बनता

ज्यों-ज्यों बिजिनिस को चमकाएं
महाशक्ति हम बनते जाएँ

हम ही क्यों अमरीका जाएँ
अमरीका को भारत लाएं

झुमका, घुंघटा, कंगना, बिंदिया
नंबर वन हो अपना इंडिया

हाई लिविंग एंड सिम्पिल थिंकिंग
यही है अपना मोटो डार्लिंग

मुसलमान को दूर भगाएं
कम्युनिस्ट से छुट्टी पाएं

अच्छे हिंदू बस बच जाएँ
बाकी सारे भाड़ में जाएँ
-मनमोहन

Tuesday, March 4, 2008

अमरीकीकरण

मैं कभी अमरीका नहीं गया, बुलाया भी नहीं गया
इसकी संभावना कम है कि बुलाया जाऊँ
मेरे बच्चों की भी फिलहाल वहां जाने या बसने की
कोई योजना नहीं है
मेरा कोई नाती-रिश्तेदार, दोस्त भी संयोग से वहां नहीं है
तब भी मैं अमरीकी नज़र से दुनिया को देखता हूँ

मुझे अमरीकी हित, अंतर्राष्ट्रीय हित लगते हैं
कई बार लगता है कि अमरीका के साथ
अन्याय हो रहा है
जिसे और कोई नहीं तो इतिहास जरूर दुरुस्त करेगा
बल्कि जब नोम चोम्स्की अपनी सरकार की नीतियों
का कडा विरोध करते हैं
तो मुझे लगता है कि एक अमरीकी इस तरह अपने देश
के साथ ज्यादती कर रहा है
क्योंकि यह आदमी मेरे देश का होता तो आज तक जिंदा नहीं बचता
मुझे तो कभी-कभी यह भी लगने लगता है कि मेरा रंग गोरा है
मैं जार्ज बुश को राष्ट्रपति कहते हुए यह नहीं सोचता
कि सौभाग्य से वे मेरे राष्ट्रपति नहीं हैं

क्या मैं ऐसा इसलिए हो चुका हूँ कि मैं अमरीकी
अखबारों में छपे लेख और खबरें पढता हूँ
टाइम और न्यूजवीक पढता हूँ , बीबीसी और सीएनएन देखता हूँ
या मुझे उम्मीद है कि मेरे वर्ग के दूसरे बच्चों की तरह
किसी दिन मेरे बच्चे भी अमरीका में बस जाएँगे
और मुझे दस साल का अमरीकी वीसा मिल जाएगा
बिना अमरीकी कपड़ा पहने, बिना अमरीकी खाना खाए
मैं इतना अमरीकी बन चुका हूँ कि
जब कभी दुनिया में कहीं भी अमरीकी हितों को चोट पहुँचती है तो मुझे बुरा लगता है
जिस बात पर अमरीकी सरकार को गुस्सा आता है
मुझे भी आता है
जब अमरीकी दुविधा से गुजरते हैं तो मैं भी गुजरता हूँ

मैं सद्दाम को फांसी देने से इसलिए परेशान नहीं हुआ
क्योंकि अमरीका यही चाहता था
मैं फिदेल कास्त्रो की मौत का
बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ
क्योंकि अमरीका भी यही कर रहा है
ह्यूगो शावेज मुझे इसलिए अच्छे नहीं लगते
क्योंकि अमरीका इन्हें अच्छा नहीं लगता
मैं इसराइल के साथ इसलिए हूँ कि
वह अमरीका के साथ है
मुझे वे सब दयनीय, समय से पिछडे,
गए बीते लगते हैं
जो अमरीका के साथ नहीं हैं
और ग्लोबलाईजेशन का विरोध करते हैं

हालांकि अमरीका मेरे देश के हितों के खिलाफ भी अक्सर जाता है
लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए है कि मेरे
देश के शासक पूरे मन से अमरीका के साथ नहीं हैं
हालांकि मैं जब अमरीकी नीतियों के साथ नहीं भी होता
तब भी मुझे लगता है कि ये मेरे देश की सरकार की ही ग़लत नीतियां हैं
इसलिए इनका मुझे विरोध करना चाहिए

जब अमरीका अन्तरिक्ष में घातक हथियार स्थापित करता है
या इराक पर हमला करता है या ग्लोबल वार्मिंग पर टस से मस नहीं होता
तो मुझे लगता है कि मेरे अमरीका को ज़्यादा मानवीय होना चाहिए
उसे यह नहीं करना चाहिए
ताकि मैं उसे ज़्यादा प्यार कर सकूं

हालांकि मैं तो उसे वैसे भी और ज़्यादा प्यार करना चाहता हूँ
यहाँ तक कि अमरीका के विरुद्ध प्रदर्शनों में शामिल होने
और अमरीका विरोधी के रूप में शिनाख्त किए जाने पर
भी मैं महसूस करता हूँ
क्योंकि अमरीका है इसलिए विरोध है

जब कभी मुझे लगता है कि अमरीका पूरी दुनिया के लिए खतरा है
तो भी मैं इस खतरे को
एक सच्चे अमरीकी की तरह महसूस करता हूँ
और जब कभी मुझे लगता है कि
अमरीका बर्बर है
तब मैं अपने से पूछता हूँ कि आख़िर
मैं अमरीकी क्यों हूँ
और कुछ देर बाद यह सोचकर मुस्कुरा पड़ता हूँ कि
मेरे पास इसका विकल्प भी क्या है।
-विष्णु नागर