Thursday, July 31, 2008

प्रेमचंद


आज ३१ जुलाई प्रेमचंद का जन्मदिन है। तिलिस्मी किस्सों से शुरू हुए प्रेमचंद जल्द ही आम आदमी के जीवन संघर्षों को साहित्य की मुख्यधारा में ले आए थे। फिर अपनी यात्रा में वे लगातार संघर्ष करते हुए आधुनिकता की ओर उन्मुख रहे। नवजागरण के नाम पर पल रहे भ्रष्टाचार मसलन भाषा की सांप्रदायिकता, शुद्धिकरण, छुआछूत, पुनरुत्थानवाद आदि को उन्होंने सिरे से खारिज किया और अंततः वे प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के गवाह भी बने। कहना न होगा कि एक न्यायकारी समाज के लिए उनकी बेचैनी उन्हें गांधी के ट्रस्टी सिद्धांत को खारिज करते हुए कम्यूनिस्ट एजेंडे तक ले गई।

आज घीसू, माधव, हामिद आदि के लिए बची-खुची जगह भी तेजी से गायब हुई है। सांप्रदायिक, पूंजावादी और साम्राज्यवादी ताकतें कुटिल गठजोड़ से और मजबूत हुई हैं। देश और दुनिया के जो हालात हैं, उनमें प्रेमचंद और भी प्रासंगिक व जरूरी हो गए हैं। प्रेमचंद पर मनमोहन का एक लेख जल्द टाइप करने की इच्छा है, कोशिश करूंगा।

Wednesday, July 23, 2008

`दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार`

हमारे बेहद पिछडे समाज में अरसे पहले राधामोहन गोकुल, भगत सिंह, राहुल आदि नेताओं, बुद्धिजीवियों ने कट्टरताओं, अंधविश्वासों, लीचड़ मान्यताओं, सामंतवाद, जातिवाद, साम्राज्यवाद, बराबरी आदि मुद्दों पर समग्र रूप से मुखर मोर्चे लिए थे। टुकडों-टुकडों में अलग-अलग मसलों पर भी मोर्चे लिए गए और इन सभी को तब के पुरातनपंथी कथित बुद्धिजीविओं के भरी विरोध का सामना करना पड़ा था. दुर्भाग्य से आज का बुद्धीजीवी मामूली रिस्क उठाने को भी तैयार नहीं है और कल के नवजागरण विरोधी पुरातनपंथी भारतेंदु सरीखों के वंशजों के आगे घुटने टिका रहे हैं. असद जैदी जैसे लेखक-कवि जब सच को सामने रखते हैं, तो धूर्त हमले किए जाते हैं. उन पर निजी हमले कर रहे एक ब्लॉग मोहल्‍ला ने उनके जनसत्ता के सती विषयक रूख पर आलोचना के रवैये को भी ग़लत ठहराने की कोशिश की है और आधे-अधूरे ढंग से यह साबित करना चाह ही की जनसत्ता तब सती विरोध का चैम्पियन था. हकीकत यह है कि दिवराला कांड को लेकर इस अखबार ने कट्टर सम्पादकीय तक लिखे थे और उसकी थू-थू भी हुई थी. इस बारे में १० अक्टूबर १९८७ को सरला महेश्वरी का एक लेख कहीं छापा था, जो अब उनकी किताब `नारी प्रश्न`` में संगृहीत है, इसकी बानगी देता है. ब्लॉग संचालक को चाहिए ४ सितम्बर87 दिवराला कांड के बाद के अक्टूबर ८७ तक के जनसत्ता के समाद्कीय सामने रखें. जो एक समाद्कीय दिया गया है, वो भी बहुत बाद का है और जिस एक पत्रकार के साहस से यह छाप पाया था, उसे भी संपादक और उनके लग्गो-भग्गो (जो आज भी वहां ताकतवर हैं) का गुस्सा झेलना पड़ा था. खैर आप सरला महेश्वरी का इस बारे में लेख एक जिद्दी धुन पर पढ़ सकते हैं...

रूपकँवर प्रकरण में कुछ ख़ास किस्म के कलमघसीटू पोंगापंथियों ने अपने को बुरी तरह बेनकाब किया है. यद्यपि इन मामलों में वे काफी बढ़-चढ़ कर आदर्शों की बात करते हैं और ख़ुद के बारे में उनका इतना दावा है कि `जो आग से खेलते हैं उनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती`. लेकिन हम इतना अवश्य कहेंगे कि जिनके दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार नहीं होती, जरुरी नहीं कि वे अच्छे इंसान भी हों।
हमारा संकेत यहाँ बिल्कुल स्पष्ट है. पिछले दिनों जब इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप पर केन्द्रीय सरकार ने बदले की भावना से छपे मारे थे, तब जनसत्ता दैनिक के संपादक प्रभाष जोशी ने `दिमाग में भूसा और हाथ में काठ की तलवार` की बात कही थी. लेकिन उस घटना के चंद दिनों बाद ही दिवराला के रूपकँवर हत्याकांड ने उनके दिमाग की उस कुटिलता को अवश्य जाहिर कर दिया जो हर कर्मकांडी का जन्मजात गुन होता है।
लगभग १५० वर्ष पहले राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ जबरदस्त शास्त्रार्थ करके इस घिनौनी प्रथा को शास्त्र सम्मत बताने की सारी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था; परम्परा के नाम पर बर्बरता को अपनाने के तर्कों की धज्जियाँ उडा दी थीं. लेकिन, जो बहुत अधिक बौद्धिक बनते हैं, जो समाज और जनता के हित की क़समें खाते नहीं थकते, ऐसे लोग जब डेढ़ सौ बरसों बाद फ़िर ख़ुद को राममोहन के वक्त के कर्मकांडी घोंघा-बसंतों की कोटि में रखने में कोई हिचक नहीं दिखाते, तो इसे कुटिलता के सिवाय और क्या कहा जाएगा, क्योंकि इसके पीछे उनका सिर्फ़ यही विश्वास काम कर रहा होता है कि लोगों ने अब तक राममोहन के कामों को विस्मृत कर दिया है तथा आज अब `राम जन्मभूमि मुक्ति` युग का सूत्रपात हो गया है; उन्हें आदिम हिंस्र बर्बरता सिर्फ़ इसलिए कबूल क्योंकि हजारों लाखों लोगों की अंधश्रद्धा उसके पीछे है. कबीर ने ऐसे ही कलमघसीटुओं को देखकर शायद कहा होगा - `पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। `
रूपकँवर को सती बनाकर मार क्या डाला गया, प्रभाष जोशी की तो बांछें खिल गयीं. तत्काल जनसत्ता का एक सम्पादकीय आया - अंगरेजी पढ़े लिखे लोग इसकी महानता को कत्तई नहीं समझ सकेंगे. ``यह तो एक समाज के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों का मामला है.`` इतिहास में पहले भी एक बार अंग्रेजी शिक्षा के असर वालों तथा ईसाई धर्म के प्रचारकों ने ``भारत के धर्म और परम्परा को बदनाम करने की कोशिश की.`` सतीप्रथा पर विचार किया जाए, लेकिन इसका अधिकार उन्हीं को है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को जानते समझाते हैं।
यह सब सतीप्रथा की नग्न वकालत नहीं तो और क्या है? शास्त्र इनकी नज़र में वही है जो सैकडों हज़ार वर्ष पहले देववाणी में कहा गया हो. विगत २०० वर्षों के बीच भारतीय चिंतन में जो नए विकास हुए हैं, राजा राममोहन राय से लेकर अन्य तमाम मनीषियों तथा प्रेमचंद तक ने हमारी मनीषा को जो कुछ दिया है, क्या वह सब किसी शास्त्र या जनता की आस्था के रूप में अपना कोई स्थान नहीं रखते? शास्त्रों की ऐसी जड़ व्याख्या किसी भी सच्चे वेदांती और तर्कशास्त्री को भी सचमुच स्तब्ध कर देगी!कुछ जनवादी महिलाओं ने जब महिला हत्या के ऐसे नग्न समर्थक को आदे हाथों लिया, तब प्रभाष जोशी ने अजीब ढंग से कलाबाजियां शुरू कर दी. तब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया की सिर्फ़ बातों से क्या होगा, क्यों नहीं वे महिलाएं लाखों उन्मत्त लोगों के मुकाबले के लिए दिवराला में उसी वक्त मैदान में उतरीं. पैंतरा बदल कर अपनी सफाई में उन्होंने लिखा ``समस्या की पेंचीदगी और गंभीरता बताने के लिए ही हमने उसे धार्मिक और सामजिक विश्वासों का मामला बताया. अगर ऐसा न होता तो रूपकँवर के चून्दडी समारोह में लाखों लोग न उमड़ पड़ते.`` -जनसत्ता, २० सितम्बर
(यह अभी अधूरा है, इसे कल तक पूरा पढ़ सकते हैं )

Sunday, July 20, 2008

कवि और समाज

दोस्तों,
हमारे समय के बेहतरीन कवि असद जैदी और मंगलेश डबराल इन दिनों बेहद कुत्सित दिमागों द्वारा घृणित ढंग से निशाने पर हैं. पिछले दिनों सामान की तलाश शीर्षक से असद की एक महतवपूर्ण कविता आयी. १८५७ को लेकर लिखी गयी यह कविता तब और अब के व्यापक संकटों, तब और अब हमारे इलीट की गद्दारी आदि को भी सामने रखती है. ये इस कवि का कसूर ही मान लिया गया और पुराने नवजागरण में बाधा बने रहे वर्ग के वंशज उन्हें सांप्रदायिक और न जाने क्या-क्या करार देने लगे. सामान की तलाश शीर्षक से ही आए संग्रह की कई महत्वपूर्ण कविताओं का भी मुर्खता और धूर्तता के मिश्रण से कुपाठ परोसकर वितंडा खडा करनेकी कोशिश की गयी. हैरत की बात यह है कि इस अभियान की खुलकर अगुआई करने वाले शख्स ख़ुद को लेफ्ट केक्रन्तिकारी धडे से भी बताते रहे हैं जबकि उनका कुल योगदान पुनरुथानवाद को बेहद सामंती, जातिवादी और साम्प्रदायिक ढंग से हवा देने भर का रहा है, तो क्या यह नही माना जाय कि इस तरह कि प्रविर्त्ती आर एस एस में ही नहीं बल्कि हमारे उदार, वामपंथी और अति वामपंथी धडों के बीच भी बेहद आराम से पलती रहती है, बल्कि कहा जाय कि यदि हमारे भीतर जरा भी आत्म्शंश्य है तो हमें देखना चाहिए कि हमारे भीतर ही एक आर आर एस मजे मेंपलता रहता है. पुराना नवजागरण सिर्फ़ एक ओट होता है, जिसकी आड़ में हम अपने सामंती, जातिवादी और साम्प्रदायिक खेल खेलते रहते हैं. मुझे लगता है कि यह मसला किसी एक मंगलेश, किसी एक असद का नही है बल्कि पूरे हिन्दी समाज के संकट का है. कहने की जरुरत नहीं है कि इस पीढी के मंगलेश, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, मनमोहन, असद जैदी, अरुण कमल, राजेश जोशी आदिसभी ने अपने-अपने ढंग से कविता को समृद्ध किया,उसे नया मुहावरा दिया. दुखद यह भी है कि नए दौर ने विमर्श और आदान-प्रदान की जगह कम की हैऔर हमारे कई समझदार व् जिम्मेदार लोग भी ऐसे मसलों पर निजी बैर याद कर या तोचुप्पी साध बैठते हैं या फिर.....। देश और समाज जिस संकट से दो-चार है, उसके मद्देनज़र हमारे समर्थ और जिम्मेदार रचनाकारों से हम ज्यादा व्यापक एकजुटता की उम्मीद रखेंगे ही और संवेदनशील व् जागरूक लोगों से भी.

Saturday, July 19, 2008

Three top scientists caution on deal

Sandeep Dikshit
NEW DELHI: Three of the country’s top nuclear scientists have said that once the nuclear deal is in place, India’s commercial nuclear interaction with other countries will be “firmly controlled” by Washington through the Hyde Act enforced through the U.S. “stranglehold” on the Nuclear Suppliers Group.
The scientists — P. K. Iyengar (former chairman, Atomic Energy Commission), A. Gopalakrishnan (former Atomic Energy Regulatory Board chief) and A.N. Prasad (former Bhabha Atomic Research Centre Director — have written a letter of appeal to Members of Parliament (MPs) on the Indo-U.S. civilian nuclear cooperation and pointed out several lacunae in the draft safeguards agreement with the International Atomic Energy Agency (IAEA).
“We are strongly of the opinion that the government should not seek the IAEA Board’s approval for the current draft safeguards agreement until its implications are debated more fully within the country and with a group of experts who were not party to the IAEA negotiations,” they observed, adding that analysts had convincingly refuted the government’s main reason for pushing the deal — energy security to the country.
The deal will not be governed by the bilateral 123 Agreement because it is anchored in U.S. domestic laws, including the Hyde Act, which contains several stipulations “extraneous to the issue of bilateral nuclear cooperation, including foreign policy behaviour which India needs to adhere to if the deal is to be kept alive.” “India-specific?”
The deal could also have other serious repercussions, including a potential weakening of India’s nuclear deterrent and an inability to protect & promote indigenous R&D efforts in nuclear technology.
They expressed doubts about the safeguards agreement being India-specific. For, it was “distinctly” clear from the Hyde Act and the 123 Agreement that no uninterrupted fuel supplies were guaranteed. “The government had assured that this defect will be corrected in the safeguards agreement but since the IAEA was all along known to be no fuel-supply guarantor, it is not surprising that Indian negotiators have failed to obtain any assurance in this regard.”
“The corrective measures mentioned in the preamble to the safeguards agreement have nothing that anchors them to any section in the operative part of the agreement.”
“The nation would like to know clearly what these corrective measures are, before plunging headlong into this deal. India being merely allowed to withdraw the Indian-built civilian [pressurised heavy water reactors] PHWRs from safeguards, and that too after stripping them of all spent & fresh fuel and components of foreign origin, is not a corrective step because this action does not ensure uninterrupted operation in the event of disruption of foreign fuel supplies.”
“Even here, Article 32 of the Safeguards Agreement appears to stand in the way of any such withdrawal. Besides, this relaxation does not apply to the imported power reactors, which will use up the bulk of our investments in nuclear power; these units will perpetually stay under safeguards, even after fuel supplies are denied,” noted the scientists.
The scientists also drew attention to the fact that the Hyde Act prohibits the U.S. administration from directly or indirectly assisting India with lifetime fuel supplies after suspension of the deal. “Therefore, the government owes a clarification to the Parliament and the public about how they intend to avoid the consequential huge economic loss from the non-operation of these extremely costly imported reactors, as a result of fuel denial.”
The government also needs to clarify its thinking on the Additional Protocol before entering into the safeguards agreement. The government had pledged to secure an unqualified right to reprocess spent-fuel and even termed India’s right to reprocess “non-negotiable.” But the 123 Agreement has an “empty theoretical right” to reprocess.
The actual permission will come after years, when a dedicated state-of-the art reprocessing plant is built anew to treat foreign fuel, along with a host of allied facilities.
Similarly, there are many other key safeguards-related issues which have been unaddressed in the draft safeguards agreement and none had been handled adequately or in an acceptable manner.
“We therefore appeal to the Members of the Lok Sabha to direct the government not to proceed further with the current safeguards agreement, and ask the Prime Minister to initiate wide-ranging and structured deliberations on the deal to develop a broad consensus among political parties,” they said।

(From - THE HINDU)

Tuesday, July 15, 2008

हीरा डोम की कविता

हमनी के रात दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेबे से मिनती कराइबी ।
हमनी के दुख भगवनवो न देखत जे
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबी
पदरी साहब की कचहरी में जाइबजा ।
बेधरम हो के अंगरेज बन जाइबी ॥
हाय राम धरम न हमसे छोड़त बाजे ।
बेशरम होके कहाँ मुहवाँ दिखाईबी ॥
खंभवा को फारी प्रह्लाद के बचवले जा ।
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले ॥
धोती जुरजोधना के भइया छोरत रहे ।
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले ॥
मारले खानवा के पत ले विभीखना के ।
कानी उंगली पे धैके पथरा उठाइबे ॥
कहाँ लो सुतल बाटे सुनत न बाटे अब ।
डोम जानी हमनी के छुए से डेरइले ॥
हमनी के इनरा के निगीचे ना जाइबजा ।
पांकि में से भरी भरी पियतानी पानी ॥
पनही से पीटी पीटी हाथ गोड़ तोड़ ले हों ।
हमनी के इतना काहेको हलकानी
हमनी के रात दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेबे से मिनती कराइबी...

(1913 में हंस में प्रकाशित)