Friday, September 5, 2008

हबीब तनवीर से संगत

१ सितंबर को महान रंगकर्मी हबीब तनवीर का जन्मदिन था। इस मौके पर वीपी हाउस, दिल्ली में सहमत ने हबीब के चाहने वालों और अदीबों से उनकी बातचीत का इंतजाम किया था। मैं इसके कुछ हिस्से को पोस्ट करना चाहता था कि इस बीच वेणुगोपाल नहीं रहे। इस नाते इस पोस्ट को स्थगित करना पड़ा। इस बीच इसका बड़ा हिस्सा मुझसे खो भी गया.....बहरहाल जो है, उसका लुत्फ लीजिए-

मासूमियत या मजबूरी
कीमतें आसमान छू रही हैं। एक तरफ गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी है और दूसरी तरफ कुछ लोग लाखों रुपये महीना कमा रहे हैं। यह खाई पटना जरूरी है। कैसे पटेगी मोटेंक अहलूवालिया या चिदंबरम से, नहीं जानता। या तो मासूमियत है या मजबूरी कि वो किसी और तरीके से सोच नहीं सकते। ...मां के पेट से झूठ बोलते हुए कोई नहीं आता सोसायटी से ही सीखते हैं...

अंधेरे में उम्मीद भी
जो थिएटर छोड़कर फिल्मों, सीरियलों की तरफ जा रहे हैं, वहां काम की तलाश में जूतियां चटकाते हैं। कुछ चापलूसी, कुछ जान-पहचान काम करती है। मुझे उनसे कुछ शिकायत नहीं है। क्या करें पेट पर पत्थर रखकर काम मुश्किल है। हमारे जमाने में दुश्मन बहुत साफ नजर आता था। सामराजवाद से लड़ाई थी। एक मकसद (सबका) - अंग्रेजों को हटाओ, रास्ते कितने अलग हों (भले ही)। अब घर के भीतर दुश्मन है, उसे पहचान नहीं सकते। विचारधारा बंटी है। पार्टियों की गिनती नहीं, हरेक की मंजिल अलग-अलग। इस अफरातफरी में क्या किसी से कोई आदर्श की तवक्को करे। हां, मगर लिबरेलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन, नए कालोनेलिज्म के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं सब तरफ से। खुद उनके गढ़ अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन में भी। तो ये उम्मीद बनती है।
जवाब से कतराता हूं
मैं अपने डेमोक्रेटिक मिजाज का शिकार रहा हूं। मेरी अप्रोच डेमोक्रेसी रही है, मैं प्रचारक या उपदेशक थिएटर में यकीन नहीं रखता। ये कोई जम्हूरी बात नहीं (शायद यही शब्द बोला था) कि आपने सब कुछ पका-पकाया दे दिया, कि मुंह में डालकर पी जाना है। अगर आप समझते हैं कि दिल-दिमाग वाला दर्शक आता है तो उकसाने वाला सवाल देना काफी होता है। ये नहीं कि मैं सवाल भी और जवाब भी पेश कर दूं। जवाब से कतराता हूं। हां, इसका हक नुक्कड़ नाटक को है, वहां जरूरी है जवाब भी देना। उनकी प्रोब्लम्स हैं। हड़ताल वगैरह होती हैं, सड़कों पर भी निकलना पड़ता है (नुक्कड़ नाटक वालों को)।

हुसेन के मिजाज की कद्र करता हूं
मैं दोनों काम करता हूं, सड़कों पर भी निकलता हूं, न निकलने वालों पर एतराज नहीं। हुसेन नहीं निकलते। उनका मिजाज अलग है। उसकी मैं कद्र करता हूं। उन्होंने (हुसेन ने) कहा, जो मेरे खिलाफ बातें हो रही हैं, सैकड़ों मुकदमे बना दिए गए हैं, इसलिए नहीं आ रहा हूं। ये भी एक तरीका है रेजिस्टेंस का। हर आर्टिस्ट अपने-अपने मिजाज के तहत काम करता है।
मैं यहां कोई फारमूला पेश नहीं करता। मैंने अपने नाटकों में कई तरह के प्रयोग किए। ये आप लोग रियलाइज करें, चाहें तो उड़ाएं, चाहें तो सराहें। इस बारे में पूछकर आप मुझे थका रहे हैं। मैं अपने काम की व्याख्या से इंकार करता

दिल को तनहा भी छोड़िए
(मख्दूम के एक शेर का हवाला देते हुए रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कुछ कहते हैं। शायद अंतरात्मा जैसा कुछ )...वो इकबाल का शेर है- अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल, कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़िए। सिर्फ अक्ल से क्रिएट करना संभव नहीं है। दिल से भी बातें होती हैं। (मख्दूम का - शहर में धूम है एक शोलानवां की मख्दूम को पूरा पढ़ते हैं।) बाल्जक से पूछा गया था कि एक प्रास्टीच्यूट की एसी तस्वीर क्यों बनाई, उन्होंने कहा, एमा इज मी। एलन्सबर्ग ने भी कहा कि आप करक्टर क्रिएट जरूर करते हैं लेकिन वो अपनी कहानी खुद कहता है। आपका उसमें कोई कंट्रोल नहीं रहता।
देखिए आप उसमें शऊर घुसाएंगे तो वो कुछ हो जाएगी- उपदेश, अखबारनवीसी या कुछ न कुछ मगर कला नहीं रहेगी।

सरकारें नहीं बल्कि मौत के सौदागर कर रहे हैं रूल
ग्लोबलाइजेशन सब कुछ सपाट कर रहा है। सिस्टेमेटिक ढंग से सोचने के आदी हो गए हैं। आराम इसी में है कि सिस्टम बनाएं, उसके पीछे छिप जाएं। इन लोगों के लिए ये मुमकिन नहीं है कि आदिवासी सभ्यता को समझ कर लोकेट किया जाए या हर तबके के लिए अलग ढंग से सोचें। एक सिस्टम बना है शोषण-दमन का, बंटवारे का, कि लोगों को डिवाइड करो। यही क्लासिकल तरीका था, अब इसमें नए-नए तरीके जुड़ गए हैं। पालिटिशन, गवर्मेंट्स रूल नहीं कर रहे हैं, मर्चेंट्स आफ वार, मर्चेंट आफ डेथ, ड्रग मर्चेंट (कुछ और भी जुमले कहे), यही सब डिक्टेट कर रहे हैं। होम, फारन, इकानमी, सब पालिसी वही तय कर रहे हैं। हमारे यहां इसकी शुरुआत है। हम ग्लोबलाइजेशन के चौराहे पर हैं।

खतरे के रास्ते से मिलता है खजाना
पुराने जमाने में किस्से यूं थे कि एक हीरो निकला, दो रास्ते आए। एक मुश्किलों भरा, जिस पर न जाने के लिए उसे सलाह दी जाती है लेकिन वो उसी मुश्किलों भरे रास्ते पर निकलता है। और खजाना उसी रास्ते पर जाकर मिलता है। हीरोइन भी खतरे भरे रास्ते के आखिर में ही मिलती है।

(कार्यक्रम में कई बड़े आर्टिस्ट थे, अलग-अलग फील्ड के। सबने कुछ पूछा। लंबी बातें जो नोट कीं, मुझसे खो गईं। जोहरा सहगल से किसी ने कहा, आपा कुछ पूछेंगी, हबीब साहब से। उन्होंने कहा, मैं क्या पूछूंगी, मैं तो उनकी आशिक हूं। उन्होंने हबीब के 25 साल और जीने की तमन्ना भी की। एक सवाल के जवाब में हबीब ने कहा कि बहादुर कलारिन तैयार करने में सबसे ज्यादा मुश्किल आई। पोंगा पंडित पहले से होता आया। मैंने खेला तो संघ वालों ने खूब पत्थर फेंके और मुझे मशहूर कर दिया। इस सब के बीच कुछ करने का दबाव भी हमेशा रहा। गुमनामी अच्छी है या नामवरी...जैसे कई गीत भी हबीब की मंडली ने सुनाए।)

6 comments:

anurag vats said...

bahut badhiya...habib sahab ki yaad taza ho aai...jamia men jab tha to unke kai shows dekhe...suna-jana bhi...protest ke liye we patna aye the...tab pahli dafa dekha tha unko...

परेश टोकेकर 'कबीरा' said...

पिछले 10 12 दिन से तबीयत ठीक नहीं है, कीबोर्ड से दूर कुछ भी काम न कर सकने की बेबसी व भयावह बोरियत ने प्रिय मित्र पुरानी किताबो से पुन: मुलाकात करवा दि। उप्रेती साहब की आदमकद इंसान वापस पढा, लगा जैसे नाटक, सफदर, बचपन के जनम के दिन सब वापस लौट आये हो।
आज ब्लाग पर हबीब का वार्तालाप पढकर तबीयत खुश कहिये ठीक हो गयी।
वेणुगोपाल पर कुछ पोस्ट लिखे अथवा मेंल भेजने की कोशिश करे।

Ashok Pande said...

हबीब साहब की बहुत याद आई आप की इस पोस्ट को पढ़कर भाई! अच्छा है, बहुत अच्छा!

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा हबीब साः के विषयक पढ़कर.


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निवेदन

आप लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.

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कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.

हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.

-समीर लाल
-उड़न तश्तरी

Arun Aditya said...

अच्छी पोस्ट है। हबीब साहेब बेलाग बोलते हैं। पिछले साल जब मैं भोपाल में था तो आजादी की हीरक जयंती के सन्दर्भ में बहुत लम्बी बात हुई थी। तुम्हारी पोस्ट ने कुछ बातें फ़िर से ताजा कर दी। बधाई।

सोतड़ू said...

सैण्णी सा'ब तुम यही करो... यही करो बेहूदी नौकरियों के बजाय...

काश के हो पाए...

आमीन