Thursday, April 22, 2010

नरेन्द्र जैन की तीन कविताएँ

(उनके नए संग्रह काला सफ़ेद में प्रविष्ट होता है से साभार)


























भाई
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दिवंगत बड़े भाई के लिए

जहाँ तक छायाचित्र संबंधी समानता का प्रश्न है
बड़े भाई लगभग मुक्तिबोध जैसे दिखलायी देते थे
चेहरे पर उभरी हड्डियाँ और तीखी नाक
जीवन रहा दोनों का एक जैसा कारुणिक
और विषम
वह एक प्रतीक जो आया कविता में
जहाँ होता रहा पुनरावलोकन जीवन और समय का
जिसमें फ़ैली रही तंबाखू की गंध और
ऐसी ही चीज़ें तमाम बहिष्कृत

भाई बीड़ी पिया करते थे और
करता हूँ याद वह काला सफ़ेद छायाचित्र
जिसमें गहरी तल्लीनता में डूबे मुक्तिबोध
सुलगा रहे अपनी बीड़ी

लगभग एक सी जीवन शैली
एक सी ज़िद दोनों की

और २७ जनवरी १९७८ को
कैंसर वार्ड से प्रेषित
भाई का यह अंतिम पोस्टकार्ड मैं पढ़ता
उसी तरह
जैसे कविता मुक्तिबोध की।
***



उसने कहा


उसने उदास भाव से कहा
भयावह मंदी का दौर है यह

उसके आसपास हर चीज़ पर
छाई थी धूल की एक परत

मंदी का आलम यह था कि
पड़ोस के सेवानिवृत्त विद्युतकर्मी ने
फेंका एक रूपये का सिक्का
और खरीदी दो फ़िल्टर बीड़ी

हम चुपचाप घंटे भर बैठे रहे
"मौत और ग्राहक का भरोसा नहीं
कब आ जाये," उसने कहा
मैंने कहा
"अब ग्राहक आने से रहा"
उसने बदरंग कपड़ा उठाया
और उस तख्ती को पोंछने लगा
जहाँ लिखा था
"उधार प्रेम की कैंची है"

जिंसों के बीच
हम दोनों
लगभग जिंसों की तरह बैठे रहे

धूल की एक तह
हम पर भी चढ़ती रही
बदस्तूर।
***


बाजरे की रोटियाँ


बहुत सारे व्यंजनों के बाद
मेज़ के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
बाजरे की रोटियाँ
मैंने नज़रें बचाते-बचाते
कुछ रोटियाँ उठाईं
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा

अब मेरे पास
भूख थी
और
एक दुर्लभ कलेवा

मैंने पुलिया पर बैठे-बैठे वर वधू को आशीष दिया
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
जहाँ मेरा घर था।
***


(वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का यह कविता संग्रह आधार प्रकाशन, SCF-267 सेक्टर 16 , पंचकुला, हरियाणा 134113 से आया है.)

Saturday, April 3, 2010

लाल्टू की एक कविता : हुसैन सागर

(दिल्ली से हैदराबाद लौटते हुए)



नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
जहाँ हुआ है, ठीक ठीक किन कारणों से हुआ है, यह मुझे नहीं मालूम
पर सोचता हूँ कि हुसैन सागर पर आज शाम कोई न जाए

सागर के साथ हुसैन का जुड़ना हिंदुओं को नागवार लग सकता है
बीचोबीच बुद्ध की प्रतिमा होने पर
कोई मुसलमान परेशान हो सकता है कि हुसैन समंदर नहीं झील ही सही में ऐसा कैसे
बौद्धों की औकात मुल्क में कम ही है, उन्हें भी समस्या कोई तो हो ही सकती है
बाकी सब का भी रब या परम पिता ईश्वर कुछ कुछ तो कहला ही सकता है अपने भक्तों से

ऐ अप्रतिम विशाल नभ, ओ निर्मल, तू जो परंपराओं को सीने में लिए शाम अँधेरे चला गया
तूने तो हुसैन को दिखला दीं झील में समंदर की लहरें
अब बड़े वामपंथी कवि लेखक भी ढूँढ रहे जीवंत परंपराएँ और आस्थाएँ

और विशाल टैंकर ट्रक सब हिंद महासागर के पार कहीं फेंक आने हुसैन सागर को उठा ले जा रहे हैं
देखने वालों में से एक पूछता है कि आप रो तो खूब लिए हल नहीं बतलाते
एक हल है कि सुबह सुबह दो से चार ग्लास पानी पिया जाए
दिमाग को दुरुस्त रखा जाए
दूसरा यह कि हो जाए कविता गद्यमय
पर बंदूक चलानी सीखा जाए

तीसरा हल यह भी कि ऐलबर्ट आइन्स्टाइन को पढ़ा जाए
कि जितना आश्चर्य आस्थावादी विचारकों की भीड़ देखकर होती है आज
उतना ही हुआ था उस महान वैज्ञानिक को भिन्न कारणों से कभी गाँधी को जानकर

नहीं शहर के उस हिस्से में जहाँ मुझे जाना है दंगा नहीं हुआ है।
मैं ऐलबर्ट आइन्स्टाइन बार बार पढ़ सकता हूँ।