Monday, June 14, 2010

कविता का कठिन रास्ता : संजय कुंदन



विष्णु नागर हिंदी के ऐसे विरले रचनाकार हैं जिन्होंने रोजमर्रा जीवन की एकदम मामूली दिखने वाली चीजों, प्रसंगों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। वह अपनी कविताओं की शुरुआत बहुत छोटी या साधारण बातों से करते हैं पर अचानक हमारा साक्षात्कार जीवन की किसी बड़ी विडम्बना से होता है या फिर हम अनुभव के एक असाधारण संसार में पहुंच जाते हैं। अक्सर एक जाने-पहचाने चित्र में हमारा एकदम अनजाना प्रतिरूप या समाज का कोई अछूता पहलू नजर आ जाता है या अनदेखा-अनचीन्हा सच सामने आ जाता है। जो बात कहने के लिए दूसरे कवि विवरणों का जाल फैलाते हैं या बोझिल व्याख्याओं-वक्तव्यों से पाठकों को आक्रांत कर देते हैं, उसे विष्णु नागर चुटकी लेते हुए रोचक अंदाज में कम से कम शब्दों में कह देेते हैं। उनमें खिलंदड़पन है। वह शब्दों के साथ खेलते भी हैं पर केवल खेलने के लिए नहीं बल्कि एक खास अर्थ तक पहुंचने के लिए। उनके खिलंदड़पन में एक इशारा रहता है जिसे पाठक जल्दी ही पकड़ लेता है। विष्णु नागर दरअसल प्रतिरोध के कवि हैं। प्रतिरोध का एक तरीका यह भी है कि स्थितियों या चरित्रों के विद्रूप को सामने लाया जाए और उसे एक्सपोज कर दिया जाए। इसमें व्यंग्य सबसे ज्यादा सहायक होता है। मनुष्य विरोधी या शोषणमूलक व्यवस्था पर हंसना प्रतिरोध का एक कारगर हथियार हो सकता है। लेकिन इस सिस्टम पर हंसते हुए उसके चीथड़े करते हुए विष्णु नागर आम आदमी की पीड़ा को पूरी मार्मिकता के साथ सामने लाते हैं। यानी उनकी कविता कॉमडी और ट्रैजेडी के स्वरों को साथ लेकर एक अलग ही रूपाकार ग्रहण करती है जिसमें जीवन अपनी पूरी जटिलता के साथ सामने आता है। इसकी एक बानगी देखिए:
पद पर बैठा शेर

वह तब भी शेर था, जब जंगल में रहता था
वह तब भी शेर था, जब पिंजड़े में आ गया
वह अब भी शेर है, जब मर चुका है

मेरी तरह नहीं कि पद पर हैं तो शेर हैं
और शेर हैं तो पिंजड़े को भी जंगल मान रहे हैं
और जब मर गये हैं तो न तो कोई आदमी मानने को तैयार है न शेर

गनीमत है कि कोई कु्त्ता नहीं मान रहा!

सरल विधान में जटिल यथार्थ की ऐसी अभिव्यक्ति करने वाले कवि हिंदी में बेहद कम हैं। उनसे पहले नागार्जुन ऐसा करते रहे हैं। एक तरह से विष्णु नागर शहरी नागार्जुन लगते हैं। लेकिन यह जोखिम भरा रास्ता है। कविता में महान बातें करके महान बने रहना आसान है लेकिन आम आदमी के जीवन को उसके पूरे अनगढ़पन के साथ सरल भाषा में सामने लाना बेहद कठिन। हिंदी में कविता के बने चौखटों में कई बार ऐसी कविताएं `फिट` नहीं बैठतीं। लेकिन विष्णु नागर की कविताओं का इस सांचे मे मिसफिट होना ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। विष्णु नागर जैसे कवि किसी सांचे में समा जाने के लिए नहीं बल्कि आम आदमी के सुख-दुख को व्यक्त करने की अपनी प्रतिबद्धता के तहत कविता लिखते हैं। इसलिए उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना है।
***
यह पोस्ट वरिष्ठ कवि विष्णु नागर की षष्टिपूर्ति १४ जून के मौके पर।

10 comments:

Ashok Kumar pandey said...

विष्णु नागर से संजय भाई ने बेहद आत्मीय और सघन परिचय कराया…हमारी शुभकामना कि विष्णु जी शतायु हों।

विजय गौड़ said...

बहुत ही सुंदर कविता के जिक्र के साथ की गई यह टिप्पणी वाकई सराहनीय है।

प्रज्ञा पांडेय said...

kavita ke madhyam se jabardast vyangy !! vishnu naagar ji se rubaruu karane ka shukriya .

Udan Tashtari said...

सुन्दर कविता एवं उम्दा आलेख.

उम्मतें said...

अच्छी कविता ! आभार

वर्षा said...

और कितने शेर बैठे उंघा रहे हैं हमारे ईर्द-गिर्द।

aman maula said...

vishnu ji ki kavita par behad atmeey aur inteligent tippani. Sanjay ji ne bahut genuine baten kahi hain

Rangnath Singh said...

विष्णु जी को स्वस्थ और सुखी जीवन की शुभकामनाएं।

डॉ .अनुराग said...

यक़ीनन !

शरद कोकास said...

अरे वा !! विष्णु जी साठ साल के हो गये । यह आपने बहुत अच्छा किया जो इस बहाने उनका परिचय ब्लॉग जगत से करवा दिया ।
बहुत आत्मीय क्षण बिताये है विष्णु नागर जी के साथ और उनकी कविताओं और लेखों और कहानियों के साथ । दुर्ग भिलाई साहित्य बिरादरी की ओर से उन्हे ढेरों शुभकामनायें ।