Saturday, July 31, 2010

हिंदी नवजागरण में प्रेमचंद : मनमोहन (1)





भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक प्रेमचंद भी हैं। आज़ादी के बाद बहुत से अवांगर्द कहते थे कि प्रेमचंद पुराने पड़ गए हैं। बल्कि प्रेमचंद के निधन के बाद ही बहुतों को ऐसा लगने लगा था। लेकिन इसे अलग से साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन ने प्रेमचंद के छोड़े हुए सिलसिले को बड़ी शिद्दत से संभाला और आगे बढ़ाया। आज़ादी के बाद के रचनात्मक संघर्ष की कहानी भी यही बताती है कि प्रेमचंद कभी इतने पुराने नहीं हुए कि उन्हें बार-बार याद करने की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाए। प्रेमचंद का अधूरा काम पूरा होना तो मुश्किल है लेकिन यह आगे ज़रूर बढ़ा है चाहे इसका अधूरापन और भी फैला हुआ दिखाई देता हो। पिछले बीस-पच्चीस बरस में हमारे राष्ट्रीय जीवन में जो कुछ घटा है उसे देखें तो प्रेमचंद और भी करीब लगते हैं और उनके होने की केन्द्रीयता और प्रासंगिकता और भी ज़्यादा समझ में आती है। कहना फ़िज़ूल है कि किसी लेखक की प्रासंगिकता का अर्थ यह नहीं कि कि नए संदर्भ में उस लेखक को हूबहू दुहराया जा सकता है। इन दिनों खाये-पिये दस-बीस फीसदी लोगों की दुनिया में प्रेमचंद चाहे क़तई अजनबी और फालतू नज़र आएं लेकिन उन करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेमचंद का अर्थ अभी कम नहीं हुआ है जो साम्राज्यवादी विश्वीकरण के बर्बर हमलों की सबसे बुरी मार झेल रहे हैं।


जिस ऐतिहासिक कार्यसूची के इर्द गिर्द 19वीं 20वीं सदी के भारतीय नवजागरण का नक्शा उभर कर सामने आया था, उसमें मध्यकालीन सरंचनाओं से बंधे एक परम्परागत समाज की अपनी जातीयता और आधुनिकता की खोज के लक्ष्य सबसे केन्द्रीय अनुरोध थे। इस संदर्भ में पहली बात जो गौरतलब है वह यह कि 19वीं सदी में भारतीय नवजागरण का अंकुरण उपनिवेशीकरण की मुहिम के साथ-साथ और एक औपनिवेशिक परिस्थिति में हुआ। आधुनिकता की सीमित प्रक्रिया के खुलने (आधुनिक शिक्षा, संचार, आधुनिक भाषा, नए मध्यवर्ग के उदय) के साथ जिस समय एक आन्तरिक आलोचना की भूमिका बनी और समाज-सुधार का एजेंडा सामने आने लगा, उसी समय पुराने सामाजिक ढांचों और वर्चस्व की प्रणालियों ने समाज सुधार के कार्यक्रम पर पुनरुत्थानवादी मुहिम के जरिए भारी दबाव बनाया जिससे उसके उदारवादी सारतत्व को कमज़ोर और अनुकूलित किया जा सके।

पुराने और नए उदीयमान सामाजिक अभिजन इस नवजागरण के नायक थे। पुनरुत्थानवाद की मिलावट के साथ समाज-सुधार के सीमित कार्यक्रम भी इन्हें एक नई जगह और आवश्यक गतिशील उर्जा देते थे। इससे इनकी छोटी-छोटी सामुदायिक पहचानें, बड़ी जातीय पहचान की शक्ल में ढ़ल कर सामने आती थीं और इनके वर्चस्व के लिए नई क्षेत्र-रचना होती थी।

उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की रेखाएं उभरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाज सुधार का कार्यक्रम पीछे जाने लगा। एक तो यही लगने लगा कि `समाज संशोधन` तो `पत्ते` हैं, असल `जड़` तो राजनीतिक आन्दोलन है। ``जब तक दण्ड का भय दिखाने की ताकत हम हिन्दुस्तानियों के पास न होगी समाज सुधार भी न होगा। राजनीतिक संशोधन जड़ है, समाज संशोधन पत्ते! राजनीतिक संशोधन हुआ तो समाज संशोधन की अलग से ज़रूरत ख़त्म हो जायगी।``1 इसके अलावा सुधार के प्रश्न पर सामाजिक प्रतिक्रियावाद का संगठित और उग्र विरोध सामने आने लगा था। समाज संशोधन के आग्रह को `भारतीय संस्कृति` में `विजातीय हस्तक्षेप` और पश्चिम के अंधानुकरण के तौर पर चित्रित और प्रचारित किया गया। महाराष्ट्र के नवजागरण में, जहां रानाडे की `सोशल कॉन्फ्रेंस` या `प्रार्थना समाज` जैसी उदारवादी मध्यवर्गीय संस्थाओं के अलावा ज्योतिबा फुले और उनके सत्यशोधक समाज के रूप में समाज सुधार आन्दोलन की ज़्यादा मूलगामी धारा उभर आई थी, यह पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया सबसे कड़ी थी। विवाह की उम्र 10 से 12 साल करने वाले सहवास बिल के आने पर महाराष्ट्र में तीखी प्रतिक्रिया की गई। सोशल कान्फ्रेंस और नवोदित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते को हिंसक अभियानों के ज़रिए तोड़ा गया।2 संस्कृति की राजनीति का सहारा लेकर अनुदार विचार और नवोदित राष्ट्रवाद में गूढ़ गठजोड़ कायम हुआ। कुछ ही समय में यह उग्र अनुदारवादी मुहिम साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा का औजार बन गई। उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के नवजागरण का साम्प्रदायीकरण और विखंडन तेज हो गया। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उपनिवेशवादियों के लिए बेहद अनुकूल था जिनके एजेण्डे में 1857 के बाद विभाजनकारी कार्यनीति ने और भी ज़्यादा केन्द्रीयता हासिल कर ली थी।

बंगाल और महाराष्ट्र के मुकाबले हिन्दी प्रदेश के नवजागरण में उदारवादी सारतत्व पहले से ही कम था। इसकी एक वजह तो यही थी कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण ने जब तक होश संभाला तब तक भारतीय नवजागरण में उदारवाद की कार्यसूची, पुनरुत्थानवाद और सम्प्रदायवाद के भारी दबाव में आ चुकी थी। उत्तर भारत में नवजागरण शुरू से साम्प्रदायिक विभाजन और विद्वेष का शिकार था। पुरोहितवाद से कड़ी टक्कर लेने के बावजूद कुल मिलाकर आर्य समाज ने ज़्यादा उग्र और अपवर्जनकारी तरीके से अखिल हिन्दूवाद के एकीकृत कट्टरतावादी नमूने को प्रस्तावित किया। सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षी उदीयमान द्विज जातियों और मध्यजातियों को अपना आधार बनाने के कारण पुरोहितवाद से लड़ना सुगम हुआ। लेकिन आर्यसमाज के नवब्राह्मणवाद में सामाजिक गतिशीलता के आश्वासन के साथ-साथ पुनरुत्थानवाद का पुट, संकीर्णता (`पश्चिम विरोध` या `विधर्मियों का आतंक`) और उग्र अनुदारता ब्रह्मसमाज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी।

19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सर्वप्रिय अभियान उर्दू के मुकाबले नागरी लिपि में लिखी `नई चाल` की हिंदी (जिसे भारतेंदु मंडल के लेखकों ने `आर्य हिन्दी` कहा है) की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित था। किसी हद तक शिक्षा प्रसार के कार्यक्रम के अलावा शायद हिन्दी नवजागरण का यह अकेला कार्यक्रम था जिसमें आन्दोलन की ऊर्जा थी। भाषा और लिपि का मुद्दा धर्म से जुड़ गया था और साम्प्रदायिक विभाजन का सक्षम औजार बन गया था। तीखी विद्वेषपूर्ण स्पर्धा इसकी संचालिका शक्ति बन गई। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी नवजागरण की कुल मिला कर जो रूपरेखा बनी उसमें आर्य समाज और भारतेंदु मंडल के आलावा जात पांत के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ उभरीं `गौ रक्षिणी` सभाओं और `लिपि संवर्द्धिनी` सभाओं की बड़ी भूमिका थी। इन तमाम उपक्रमों को देसी रियासतों और रजवाड़ों का भरपूर सहयोग और सरंक्षण हासिल था। आर्य समाज ने गौ रक्षा और भाषा-लिपि के इन अभियानों में शरीक हो कर ही सनातन पंथ के प्रभाव क्षेत्र तक अपने नेतृत्व का विस्तार किया। बाद में `शुद्धि आन्दोलन` के जरिये इसी सिलसिले को नई आक्रामकता मिली।

इसे ऐतिहासिक विचित्रता ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के `जातीय जागरण` को जातीय विखंडन की नींव पर खड़ा होना पड़ा। विखंडन और जागरण सहवर्ती प्रक्रियाएं बन गईं। आधुनिक भाषा जातीय गठन का एक अनिवार्य औजार मानी जाती है। यह कोरा औजार भी नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म की संकीर्ण पहचानों से बाहर एक वृहत्तर जातीय समुदाय के बनने की रासायनिक प्रक्रिया का अंग है। लेकिन खुद इस प्रक्रिया में ढ़ल कर निकली उत्तर भारत की ख़ूबसूरत आधुनिक बोली साम्प्रदायिक होड़ की शिकार हुई और दो टुकड़े हो गई। इतना स्पष्ट बंटवारा हुआ कि उर्दू-फ़ारसी के अच्छे जानकर होने के बावजूद फोर्ट विलियम कॉलेज के लल्लू जी लाल से लेकर बीसवीं सदी के लाला भगवानदीन तक के हिन्दी गद्य पर इसका छींटा तक दिखाई नहीं देता। 19वीं सदी के उर्दू विरोध की परम्परा बीसवीं सदी में हिन्दुस्तानी की ख़िलाफत तक पहुंची।

इसी नवजागरण के हिस्से प्रेमचंद भी थे। लेकिन इसे समझने में शायद कठिनाई न होनी चाहिए कि इसमें उनकी जगह ज़्यादा मुश्किल और अलग थी। उर्दू और हिन्दी दोनों के अलग-अलग लिखे गए इतिहासों में उनकी एक ही जगह है। इस बात का महत्व और अर्थ कभी कम न होगा कि प्रेमचंद ने अपने विचार और रचनात्मक व्यवहार के जरिये उत्तर भारतीय नवजागरण के साम्प्रदायिक विभाजन के धूर्त तर्क को सिरे से रद्द कर दिया और उसके झूठ के साथ कभी समझौता नहीं किया। इस `नीच ट्रेजैडी` के साथ प्रेमचंद कभी संतुष्ट सम्बन्ध नहीं बना सके, जबकि हिंदी नवजागरण के ज़्यादातर पुरोधाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचंद के बाद प्रगतिशील आन्दोलन ने ज़रूर इस खाई को अस्वीकार कर के हिन्दी-उर्दू को फिर से करीब लाने में मदद की। वरना हिंदी बौद्धिकता की `मुख्यधारा` की आत्मचेतना में पिछले दो सौ साल के इस अन्तर्विभाजन की पीड़ा शायद ही कभी झलकती हो। सच तो ये है कि खंडित हिंदी जाति की `गौरव यात्रा` का प्रसन्न चित्त वृत्तांत लिखने वाले ज़्यादातर इस अन्तर्विभाजन को ही हिन्दी नवजागरण का सबसे बड़ा कारनामा समझते हैं।
जारी...
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Tuesday, July 27, 2010

`लेकिन वे बड़े कवि हैं`


`इधर हिंदी-पट्टी में कुछ घुमंतू स्वयम्भू “फिल्म-समारोह-निदेशक” कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो अपने फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं के बल पर निरीह दर्शकों को बहका कर कस्बाई सिने-बजाज बने कमा-खा रहे।`

ये लाइनें ईरानी फिल्मकार जफ़र पनाही पर लिखे विष्णु खरे के लेख से ली गई हैं जो कादम्बिनी के जुलाई अंक में छपा था।

दुनिया तेजी से बदल रही है। देखते-देखते झोला लटकाए किसी मकसद के लिये घूमते-फिरना अपमान का सबब मान लिया गया है। झोला फटीचर हो और उसमें पुरानी चिंदी चीजें हों तो आपकी खैर नहीं। कमबख्त गली के कुत्ते भी उसे ही भौंकते हैं। लेकिन हिन्दी का `मार्क्सवादी` कवि-आलोचक भी ऐसे लोगों को फटकारने लगे तो समझना चाहिए कि दुनिया वाकई बदल गई है या फिर नफा-नुकसान भांपकर हमारे `बुद्धिजीवी` बदल गए हैं। एक अखबार के संपादक के पास हजारों फिल्मों की सीडी हैं और वे अक्सर अपने इस प्रिविलेज का प्रदर्शन भी करते हैं लेकिन इससे उनकी राजनीति ज्यादा प्रोग्रेसिव नहीं हो जाती। ऐसे बहुत से लेखक हैं जो आज अचानक अपने ज्यादा पढ़े-लिखे होने का ढिंढोरा खुद पीट रहे हैं और अहंकार में अपने से पहले की पीढी को बेपढ़ा और मूर्ख घोषित करते रहते हैं,लेकिन उनके सरोकार उतने ही ज्यादा नंगे होते जाते हैं।

मैं जिन कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में रहता हूँ वहाँ बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास बेहद कम किताबें है, हालाँकि उनमें किताबों की भूख बेहद ज्यादा है। जिनके पास बेहद सस्ती हो जाने के बावजूद न डीवीडी है, न सीडी और न टीवी। फिर भी उनके सरोकार बेहद साफ़-सुथरे हैं और वे आज भी साइकलों पर फटे झोलों में चाँद किताबें लिये, छोटे-छोटे गाँवों में मीटिंगें करते हैं, नाटक जत्थे चलाते हैं और बेहतर दुनिया का ख्वाब ही नहीं देखते, अपने तईं उसके लिये संघर्ष भी करते हैं।

लेकिन विष्णु खरे निश्चय ही बड़े, बेहद बड़े कवि, आलोचक,फिल्म और विविध कलाओं के समीक्षक हैं। कुछ दिनों पहले तक उन्हें भी `कुछ फटीचर झोलों में दो-तीन पुरानी पाइरेटेड चिंदी सीडिओं` के सहारे हिन्दी पट्टी में प्रतिरोध का सिनेमा दिखाने का दावा करने वालों के साथ देखा जाता था। ठीक ही है जो उन्होंने अपने रुतबे को आगे ऐसे `फटीचरों` के साथ बेआबरू होने से बचा लिया है। मालूम नहीं कि यह सब उन्होंने हुसेन प्रकरण में एक `नागवार` लेख छपने के बाद महसूस किया या फिर `कादम्बिनी` वाली पंक्तियाँ पहले ही छपचुकी थीं।

जाहिर है एक `बड़े` आदमी को हक़ है कि वो जब चाहे जिसे फटकार लगाए, फिर वो हुसेन हों, असहमति जताने वाले रवीन्द्र त्रिपाठी हों या किसी कार्यक्रम के श्रोता हों (जसम के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुए एक कार्यक्रम में उनका फट पड़ना ज्यादा पुरानी घटना नहीं है)। यह उनके `बड़े` होने का ही कमाल है कि जब वे हुसेन प्रकरण में खालिस संघी स्याही से पन्ने के पन्ने रंग रहे थे तो एक वरिष्ठ (खरे जी से वरिष्ठ नहीं) कवि बेबसी से कह रहे थे- `लेकिन वे बड़े कवि हैं।` अब भी कोई क्या बोले?

Friday, July 2, 2010

नेरेटिव माध्यम होता है लक्ष्य नहीं: पंकज बिष्ट (लोकार्पण की रपट)

नेरेटिव माध्यम होता है लक्ष्य नहीं: पंकज बिष्ट

27 जून को राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित गीत चतुर्वेदी की कहानियों के दो संग्रहों सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिम डैडी का विमोचन किया गया। इंडिया इंटरनेशन सेंटर में आयोजित समारोह में पुस्तकों का लोकार्पण जानेमाने मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने किया। नामवर सिंह ने अध्यक्षता और पंकज बिष्ट मुख्य वक्ता थे।

पंकज बिष्ट ने अपने वक्तव्य की शुरूआत यह कहते हुए की कि बेहतर होता कोई आलोचक इन संग्रहों पर बोलता। रचनाकारों की रचनाओं को लेकर अपनी समझ होती है। इसलिए बहुत संभव है वह उस तरह की तटस्थता न बरत पायें जो किसी मूल्यांकन के लिए जरूरी होती है। उन्होंने अपनी स्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहा कि मैं दिल्ली से बाहर था और मुझे ये संग्रह 23 जून को ही मिले। गोकि मैंने इन में से कुछ कहानियां पहले भी देखी हुई थीं पर मुझे नये सिरे से उन्हें पढ़ने का मौका नहीं मिला। फिर इस बीच मेरी व्यस्तता भी बहुत बढ़ जाती है। (उनका इशारा समयांतर की ओर था।) इसलिए मैंने उन दो कहानियों - ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ और ‘पिंक स्लिप डैडी’ - पर अपने को केंद्रित किया है जिनके शीर्षकों पर ये संग्रह हैं। ये कहानियां एक तरह से उनकी विषयवस्तु के दो ध्रुव हैं। एक ओर मुंबई का निम्न मध्यवर्ग है और दूसरी ओर वहां की कारपोरेट दुनिया। उन्होंने कहा वैसे वह मुंबई पर लिखनेवाले हिंदी के पहले कथाकार नहीं हैं। इससे पहले शैलेश मटियानी ने मुंबई के उस जीवन की कहानियां लिखीं हैं जिसे अंडरबैली या ऐसी दुनिया कहा जाता है जो नजर नहीं आती।

उन्होंने आगे कहा गीत चतुर्वेदी का उदय हिंदी साहित्य के परिदृश्य में धूमकेतु की तरह हुआ है। वह कवि- कथाकारों की उस परंपरा से हैं जिस में अज्ञेय और रघुवीर सहाय आते हैं। हिंदी में लंबी कहानियां लिखनेवाले वे अकेले ऐसे कथाकार हैं जिसकी मात्रा छह कहानियों से दो संग्रह तैयार हुए हैं।

उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी भाषा है। वह गद्य में चित्रकार हैं। कहीं वह यथार्थवादी लैंडस्केप पेंटर की तरह हैं तो कहीं इप्रैशनिस्टिक चित्रकार मतीस की तरह कम रेखाओं में बहुत सारी बात कह देते हैं। बिष्ट ने दोनों कहानियों से पढ़कर ऐसे अंश सुनाए भी। गीत की भाषा की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी भाषा में ऐसी सघनता और खिलंदड़ापन है जो समकालीन लेखन में बिरल है। वह एक तरह से भाषा के शिल्पी हैं। यानी वह अपने वाक्यों को गढ़ते हैं।

पिंक स्लिप डैडी को उन्होंने कारपोरेट जगत की ऐसी कहानी बतलाया जो हिंदी में अपने तरह की है। हाल की आर्थिक मंदी की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी हमें कारपोरेट जगत की उस व्यक्तिवादी दुनिया में ले जाती है जहां सफलता ही सब कुछ है। पर यह कहानी पूरी तरह पुरुष की दृष्टि से लिखी गई है जहां स्त्री केवल एक उपभोग्य वस्तु है। पूरी कहानी मैनेजमेंट के लोगों की नजर से ही लिखी गई है। इसमें वे लोग नहीं हैं जो लोग वास्तव में मंदी का शिकार हुए थे।

सावंत आंटी की लड़कियां निम्नमध्यवर्ग की दुनिया की कहानियां हैं जहां परिवार अपनी बेटियों के विवाह को लेकर त्रस्त हैं। यह हिंदूओं की विवाह प्रथा की विकृतियों की ओर इशारा करती हैं। माता-पिता बच्चों को अपने जीवन साथी के चुनाव का अधिकार नहीं देना चाहते हैं और कहानी में लड़कियां इस अधिकार के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। बड़ी बहन जो नहीं कर सकी उसे दूसरी बहन कर दिखाती है। पंकज बिष्ट ने कहानी का कथ्य बतलाते हुए कहा कि दूसरी बेटी अंततः उसी लड़के से शादी करती है जिसे पहले पिता चाहता था। पर पत्नी के दबाव में आकर वह तब बेटी की शादी दूसरी जगह करने को तैयार हो जाता है।
कहानी पर उनकी पहली आपत्ति उसके अंत को लेकर थी। स्वाभाविक तौर पर ऐसी स्थिति में कम से कम पिता को इतना विषाद नहीं होना चाहिए था, जितना कि दिखाया गया है। बहुत हुआ तो ट्रेजिक-कॉमिक स्थिति हो सकती थी। कुल मिला कर यह प्रोग्रेसिव कदम था। पर लेखक ने स्थिति से अन्याय किया है।

उनकी दूसरी आपत्ति थी कि यह कहानी दलित समाज की पृष्ठभूमि पर है जो कि जाति नामों से समझी जा सकती है। आखिर उन्होंने यहां हर लड़की को ऐसा क्यों दिखलाया है कि वह 13-14 वर्ष की हुई नहीं कि भागने को तैयार है। या उनका एकमात्रा काम आंखें लड़ाना है? क्या वहां जीवन का और कोई संघर्ष नहीं है। इस समाज में सिर्फ हंगामा ही होता रहता है।

पंकज जी ने कहा मैं नहीं जानता कि ऐसा जानबूझ कर हुआ है या अनजाने में पर अंबेडकर और नवबौद्धों तक के जो संदर्भ आये हैं वे कोई बहुत सकारात्मक नहीं है। उन्होंने कहा लेखकों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस तरह की स्थिति से सायास बचें।

उनकी आपत्ति विशेषकर ‘पिंक स्लिप डैडी’ के संदर्भ में अंग्रेजी शब्दों के अनावश्यक इस्तेमाल पर भी थी जिससे कि कहानी भरी पड़ी है। उन्होंने सवाल किया कि ऐसा क्यों है कि लेखक यौन संदर्भों का जहां-जहां खुलकर और अनावश्यक भी, वर्णन करता है पर उनमें जनेंद्रियों के लिए अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल है। लगता है जैसे वह स्वयं उन संदर्भों और शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अगर डर नहीं भी रहा है तो भी बहुत आश्वस्त नहीं महसूस कर रहा है और इसलिए अंग्रेजी की आड़ ले रहा है। जिन शब्दों को बोलने से लेखक को परहेज है उन्हें वह क्यों शामिल करना चाहता है। उनका उन्होंने कहा कम से कम मेरे जैसे आदमी को इस तरह के संदर्भों, अपशब्दों और गालियां का इस्तेमाल जरूरी नहीं लगता है। वैसे कला का मतलब जीवन की यथावत अनुकृति नहीं है। वह जो है और जो होना चाहिए उसके बीच की कड़ी होता है।

उन्होंने कहा कि लंबी कहानियों और उपन्यासों के बीच की सीमा रेखा बहुत पतली होती है। इस पर भी कहानी और उपन्यास में अंतर होता है। दुनिया में बहुत ही कम लेखक ऐसे हैं जिन्होंने लंबी कहानियां लिखी हैं। जो लिखीं हैं वह इक्की-दुक्की हैं। उदाहरण के लिए काफ्का की एक कहानी ‘मेटामौर्फसिस’ लंबी है। इसी तरह जैक लंडन की भी एक ही कहानी ‘एन ऑडसी आफ दि नार्थ’ लंबी है। हां, माक्र्वेज की एक से अधिक लंबी कहानियां नजर आ जाती हैं। लंबी कहानियों में विषय वस्तु की तारतम्यता को बनाए रखनेके लिए अक्सर अतिरिक्त वर्णन या नैरेटिव पर निर्भर रहना पड़ता है जो पठनीयता को बाधित करता है। हिंदी में भी कुछ बहुत अच्छी लंबी कहानियां लिखी गई हैं। इन में दो मुझे याद आ रही हैं। एक है संजय सहाय की ‘मध्यातंर ’ और दूसरी है नीलिमा सिन्हा की ‘कुल्हाड़ी गीदड़ और वो...’उन्होंने कहा कि बेहतर है कि गीत चतुर्वेदी उपन्यास लिखें जिनकी उनमें प्रतिभा है। वैसे भी उनकी कहानी ‘पिंक स्लिप...’ उपन्यास ही है। हिंदी में पिछले साठ वर्ष से कहानी-कहानी ही हो रही है। जिस भाषा में उपन्यास नहीं है उसकी कोई पहचान ही नहीं है।

बिष्ट ने कहा कि लेखक पर जादुई यथार्थवाद का जबर्दस्त प्रभाव है। यह अभिव्यक्तियों में भी है और उनके चरित्रों में भी। गीत के कई चरित्रा सनके हुए से हैं जैसे कि माक्र्वेज की रचनाओं में नजर आते हैं। उदाहरण के लिए ‘पिंक स्लिप डैडी’ की एक पात्रा पृशिला जोशी तो, जो तांत्रिक है, माक्र्वेज के एक कम चर्चित उपन्यास न्यूज ऑफ़ ए किडनैपिंग के नजूमी/तांत्रिक जैसी ही है। इसके अलावा सबीना, अजरा जहांगीर, नताशा, जयंत और चंदूलाल के व्यवहारों में भी यह सनकीपन साफ नजर आता है जो कि माक्र्वेज का ट्रेड मार्क है। इसी तरह तथ्यवाद की झलकियां भी देखी जा सकती हैं - इतने बज कर इतने मिनट और इतने सेकेंड या इतना फिट इतना इंच आदि।
अंत में उन्होंने कहा कलात्मकता रचनाओं के लिए जरूरी है पर अपने आपमें अंत नहीं है। नेरेटिव माध्यम है लक्ष्य नहीं। लेखन सिर्फ जो है वह भर नहीं है उसमें जो होना चाहिए वह भी निहित होता है। इसलिए हर रचना दृष्टि की मांग करती है।
उन्होंने गीत चतुर्वेदी की एक पताका टिप्पणी की अंतिम पंक्तियों को, जो कहानी के हर खंड में है, उद्धृत कियाः
‘‘ऐसे में लगता है, भ्रम महज मानसिक अवस्था नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा होता है।
‘‘क्या हम श्रम के राग पर भ्रम का गीत गाते हैं?’’
और कहा, हमें इस पर रुककर सोचने की जरूरत है। वाक्य सुंदर हो सकते हैं, पर उनकी तार्किकता का जांचा जाना जरूरी है।

जानेमाने मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने पंकज बिष्ट की बात का समर्थन करते हुए कहा कि कहानी पर ज्यादा समय खराब करने की जरूरत नहीं है। मराठी में भी कहानी का बड़ा जोर था। कहानी लिखना आसान होता है और उसकी कामर्शियल वेल्यु ज्यादा होती है। अखबारवाले उसे फौरन छाप देते हैं। पर वह जीवन को सही तरीके से नहीं पकड़ पाती। उन्होंने कहा मुंबई में कामगारों की जिंदगी के संघर्ष को आप कहानी में नहीं पकड़ सकते। मध्यवर्ग का लेखक अपनी खिड़की से बाहर जाती एक औरत को देखता है और फिर उसके अकेलेपन की कहानी गढ़ लेता है। उन्होंने मजाक में राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी से कहा कि वह कहानियां छापना बिल्कुल बंद कर दें। मराठी में हमने यही किया इसी वजह से अब वहां उपन्यास लिखे जा रहे हैं।

समारोह के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि गीत चतुर्वेदी धमाके के साथ हिंदी के परिदृश्य में उभरे हैं। उनकी चार किताबें एक साथ आई हैं। इन में दो कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह है जो इसी वर्ष के प्रारंभ में आया था। उन्होंने चौथी किताब के रूप में गीत चतुर्वेदी के उस साक्षात्कार को शामिल किया जो उन्होंने कुछ समय पहले एक वेबसाइट को दिया था और जिसे एक पुस्तिका के रूप में समारोह के अवसर पर निकाला गया था और श्रोताओं को मुफ्त बांटा गया। पंकज बिष्ट द्वारा कही बातों पर कोई टिप्पणी न कर के उन्होंने गीत चतुर्वेदी को एक महत्वपूर्ण लेखक मानते हुए अपनी बात को उनकी एक अन्य कहानी ‘सिमसिम’ तक ही सीमित रखा। कहानी की तारीफ करते हुए उन्होंने इसके एक उपशीर्षक ‘मेरा नाम मैं’ को समकालीन संवेदना की अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण बतलाया। नामवर सिंह ने कहानी का पक्ष लेते हुए यह जरूर कहा कि जो जिस विधा में चाहे लिखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कमोबेश भालचंद्र नेमाड़े और पंकज बिष्ट की इस बात से सहमत नहीं थे कि कहानी पर ज्यादा समय नहीं खराब किया जाना चाहिए।

(जनपक्ष से साभार)