Wednesday, April 18, 2012

सेंडी याने संदीप राम - अच्युतानंद मिश्र




उदासी वहाँ दबे पांव

रोज आती

देर रात शराब की मद्धिम रौशनी में

वे उसे खाली ग्लास की तरह लुढ़का देते

और फफक पड़ते


उनकी सुबहें दोपहर के मुहाने पर होतीं

और तब दोपहर की तेज रौशनी में

वे अपने समाज को देखते

अक्सर दूध ब्रेड या अंडा लाते हुए

जहाँ बाल सुखाती औरतें

बच्चों के भविष्य के बारें में बात करतीं

भविष्य तार पर लटके कपडे की तरह

सूख रहा था जिसमे

कहीं अथाह रौशनी तो

कहीं बम विस्फोट के खंदकों सा

अंधकार था

कही तेज धुनों में डूबती शामे थी

तो कहीं इत्र की मादक गंध में

बेसुध पड़ी रात


वे अपने गांव से आये हुए लोग थे

गांव में उनके घर थे

घरों में दीवारें थी

जिनमे कैद थे मां बाप

भाई बहन

एक चूल्हा था जिसकी आग

महज़ खाना नहीं पकाती थी

पूरी की पूरी आत्मा को सुखा देती थी

उनमे से कइयों के पास मोटर बाइक थी

कईयों के पास घर

कईयों के पास पिता

वे एक एक की किस्त अदा करते

वे तेज तेज साँस लेते

चैटिंग करते हुए ग्लास भर

पानी पी जाते

और वहाँ अनुपस्थित किसी अनाम को

अंग्रेजी में थैंक्यू कहते


वे हिंदी की शर्म में डूबे अंग्रेजीदां बच्चे थे

वे अपने पिताओं की भी शर्म ढो रहे थे

जो उनसे कभी हिंदी में तो कभी

मगही मैथिली और भोजपुरी में बात करते

वे घंटो अंग्रेजी में हँसने का अभ्यास करते

और असफल होने पर

कॉल सेन्टर के नवें माले से छलांग लगा देते


छलांग लगाने से ठीक तीन मिनट पहले

जब वे अपनी प्रेमिका के साथ

हमबिस्तर हो रहे होते

वे कहते

आई विल मैरी यु सून

उनके ये शब्द

हवा में तब भी एकदम ताज़े होते

जब वे हवा और पृथ्वी को अलविदा कह चुके होते


पिज्जा हट में पिज्जा खाते हुए

वे अक्सर अपने पिता के बारे में सोचते

जो अक्सर कहते अगली फसल के बाद

मैं आऊंगा मिलने

वे हर बार मन्त्र की तरह इसे फोन पर दुहराते

पर वे कभी आ नहीं पाते


अब इस बिडम्बना का भी क्या करें

कि इधर देश में खूब काम हुआ है

लगातार बनती रही हैं सडकें

बिछती ही रही हैं रेल की पटरियां

और अभागे पिता छटपटाते ही रह गए

मिलने को अपने बेटों से


इन्टरनेट पर बैठे बैठे

कहीं किसी कोने अंतरे में दबी छुपी

किसानों की आत्महत्या की खबरों पर

अगर उनकी नज़र पड़ जाती

वे बेचैन हो उठते

वे अपने हाथों को रगड़ने लगते

पेट में एकदम से हुल सा उठता

उबकाई सी आती

पर मोबाइल पर जाते जाते

उनके हाथ रुक जाते

और फिर इन्टरनेट पर

वे अपने बैंक अकाउंट को देखते

उन्हें थोड़ी राहत होती


शाम को कैफे में बैठे

जब उनकी नज़र इस खबर पर पडती

की गांव में पिज्जा हट खुलने को है

तो और बढ़ जाती उनकी उदासी

र इससे पहले कि उनके हाथ

उनके चमकते मोबाइल पर जाते

मोबाइल एक अंग्रजी धुन बजाने लगता

उधर से अवाज आती

हलो

यु नो सेंडी जम्पड फ्रॉम नाइन्थ फ्लोर

व्हाट!

सेंडी याने संदीप राम ...............

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बोकारो में जन्मे युवा कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र दिल्ली में रहते हैं और जन संस्कृति मंच में सक्रिय हैं। उनकी एक आलोचना पुस्तक `नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता` प्रकाशित हो चुकी है। अच्युतानंद मिश्र, 227प्रथम तल, पॉकेट-1, सेक्टर-14, नई दिल्ली-75 फोन-9213166256


Tuesday, April 10, 2012

नरेन्द्र जैन की कविताएं और असद ज़ैदी की टिपण्णी

वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन के नए कविता संग्रह `चौराहे पर लोहार` (आधार प्रकाशन) से कुछ कविताएं

चौराहे पर लोहार

विदिशा का लोहाबाज़ार जहाँ से शुरू होता है
वहीं चौराहे पर सड़कें चारों दिशाओं की ओर
जाती हैं
एक बांसकुली की तरफ़
एक स्टेशन की तरफ़
एक बस अड्डे
और एक श्मशानघाट
वहीं सोमवार के हाट के दिन
सड़क के एक ओर लोहार बैठते हैं
हँसिये, कुल्हाड़ी, सरौते और
खुरपी लेकर
कुछ खरीदने के लिये हर आने-जाने वाले से
अनुनय करते रहते हैं वे
शाम गये तक बिक पाती हैं
बमुश्किल दो-चार चीज़ें
वहीं आगे बढ़कर
लोहे के व्यापारी
मोहसीन अली फख़रूद्दीन की दुकान पर
एक नया बोर्ड नुमायां है
`तेज़ धार और मज़बूती के लिये
ख़रीदिये टाटा के हँसिये`
यह वही हँसिया है टाटा का
जिसका शिल्प वामपंथी दलों के चुनावी
निशान
से मिलता जुलता है
टाटा के पास हँसिया है
हथौड़ा है, गेहूँ की बाली और नमक भी है
चौराहे पर बैठे लोहार के पास क्या है
एक मुकम्मिल भूख के सिवा?
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जोधपुर डायरी सीरीज से एक कविता

क़िले में अब
तोप, तमंचों, बंदूकों
तलवारों, गुप्तियों
बघनखों, लाठियों और
बल्लमों की भरमार है
महाराजा की शान में
पेश की गयी तलवार पर
अंकित है प्रशस्ति का वाक्य
और लिखा है नाम
उसे पेश करने वाले ग़ुलाम का
क़िले के झरोखों से उड़ता है
पक्षियों का गोलबंद झुंड
और तलवारों में कंपकंपी पैदा करता
क़िले के पार चला जाता है
क्यूरियो शॉप में
290 वर्ष पुरानी शराब की ख़ाली बोतल का दाम रुपये
दो हजार एक सौ ठहरा
लुभाने के लिए बहुत हैं अतीत के नाचते खण्डहर.
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अतियथार्थ

जैसे भागते-भागते किसी तेज़ गति के संग
किसी के हाथ से छूट जाता है
रेल का डिब्बा
या खाई से गिरते हुए नीचे
छूट जाता है रस्सी का अंतिम सिरा
या
विस्फोट के मुहाने तक
पहुँचते ही बुझ जाती है दियासलाई
हममे से
हर किसी के हाथ से
कुछ न कुछ छूट गया है
कहीं रखी होती है
ऐसी भी थाली
जिस पर रोटी का चित्र बना होता है
एक भूखे आदमी के हाथ का कौर
वहीं छूट जाता है हाथ से
इस काली सफ़ेद पुरानी तस्वीर में
यह शख़्स
ऐसा दिखलाई दे रहा
जैसे अभी-अभी भरपेट खाकर
थाली से उठा ही हो
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इधर

(विध्वंस : बाबरी मस्ज़िद)
कुछ कालिख
यहाँ वहाँ हाथों पर
चेहरे पर
शब्दों पर
कुछ कालिख
साज़ों पर बजती धुन पर
इधर सबसे ज़्यादा
आँखें चुरायी बच्चों से मैंने
हुआ तब्दील
शर्म के
जीते जागते जीवाश्म की शक्ल में
मार गया पाला
इधर आवाज़ को
इधर हुआ शर्मसार
दिवंगत् कवियों के समक्ष
इधर
और ज़्यादा
थक गया मैं
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विदिशा डायरी सीरीज से एक कविता

जिन घरों में बड़े भाई की कमीज़
छोटे भाई के काम आ जाती है
इसी तरह जूते, चप्पल और पतलून तक
साल-दर साल उपयोग में आते रहते हैं
वे कभी-कभार आते हैं बांसकुली
पतलून कमर से एक इंच छोटी करवाने
या घुटने पर फटे वस्त्र को रफू करवाने
अक्सर इन घरों में यदि पिता हुए तो
वे बीसियों बारिश झेल चुकी जैकिट पहनते हैं
और फ़लालैन की बदरंग कमीज़
जिन्हें सूत के बटन भी अब मयस्सर नहीं होते
रफ़ूगर की दुकान से
दस कदम आगे रईस अहमद
पुराने वाद्य-यंत्रों के बीच बैठे
क्लेरनेट पर बजाते रहते हैं कोई उदास धुन
यह धुन होती है कि
अपने चाक वक़्त को रफ़ू कर रहे होते हैं वे
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इससे पहले 2010 में आधार प्रकाशन से ही छपे नरेन्द्र जैन के कविता संग्रह `काला सफ़ेद में प्रविष्ट में होता है` की कविताएं और उस संग्रह पर छपी वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की टिपण्णी भी याद आ रही हैं। इस पोस्ट के साथ वह टिपण्णी भी यहां दे रहा हूं। -

`नरेन्द्र जैन की कविता को हम क़रीब 35 साल से जानते हैं. वक़्त के साथ इस जान-पहचान में पुख्तगी भी आई है. वह अपनी पीढ़ी के उन चंद खुशनसीब कवियों में हैं जिनकी कविता ने अपने समय की रचनाशीलता से एक ऐसा पायेदार रिश्ता बनाया है जिसमें कभी कोई अधीरता या बेजा आग्रह नहीं रहा : एक रचनात्मक तन्मयता, फ़िक्रमंदी लेकिन अपनी कविता के कैरियर से एक हद तक बेनियाज़ी नरेन्द्र का वह दुर्लभ गुण है जो उन्हें अपने समकालीनों के बीच आदर और प्यार का पात्र बनाता है।

नरेन्द्र जैन सहज ही अपने काव्य व्यक्तित्व और अनुभव-जगत की सम्पूर्णता के साथ अपनी कविता में मौजूद रहते हैं.हर नई कविता के लिए नुक्ता ढूँढ़ने और उसके इर्द-गिर्द अपनी काव्यकला को माँजने (या हथियार की तरह भाँजने) की ज़रूरत उन्हें कभी नहीं होती. एक आंतरिक संगीत, अक्षय रागदारी और नागरिक हयादारी की लौ उनकी कविताओं में हरदम मौजूद रहती है. अपने हमअस्रों के बीच उनकी शख्सियत इन्हीं चीज़ों की जुस्तजू से बनी है. वह अपनी गहन निजता और आन्तरिकता को भी अपने नागरिक और सामाजिक मन के माध्यम से ही पाने के हामी हैं. उनकी कविताएँअपने तग़ाफ़ुल में भी बहुत सी चीज़ों की ख़बर एक साथ रखती हैं समाज, राजनीति, देश-विदेश, आसपास, कवि का अंतर्मन. यहाँ ऐसी सम्पूर्णता है जिसका सम्बन्ध लिखे जाने से कम, जिए जाने और घटित होने से ज़्यादा है.ज़िम्मेदारी और अकेलापन. दरअसल तनहाई की सच्ची गरिमा और अर्थवत्ता भी ऐसी ही कविता में रौशन होती है.

आज कविता एक भयावह सरलीकरण के दौर से गुज़र रही है और यह सरलीकरण मोटी समझ या ठसपन वाला सरलीकरण नहीं, एक नैतिक और राजनीतिक सरलीकरण है. चूंकि घुटन, पीड़ा, दुःख और क्रोध से, अन्याय और विषमता के प्रतिकार से, अंतर्विरोध की मार से बचकर कविता नहीं लिखी जा सकती, और लिखी जाए तो समकालीन कविता नहीं हो सकती, इसलिए यथास्थितिवादी रचनाकारों ने वास्तविक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की जगह काल्पनिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों की भूलभुलैयाँ रचनी शुरू की है. बिना विद्रोह किए, बिना उस विद्रोह की क़ीमत चुकाने को तैयार हुए ये लोग विद्रोह और प्रतिरोध का एक रुग्ण रोमांटिक और उत्तर-आधुनिकतावादी संसार कलाओं में रच रहे हैं. अब मुठभेड़ और प्रतिरोध की जगह 'जेस्चर' और 'मेटाफर' ने ले ली है. देखते देखते आज ऐसे कवि काफ़ी तादाद में इकट्ठे हो गए हैं जो इस तरीक़े को ही असल 'तरीक़ा' और सच्चा 'सिलसिला' मानते हैं. इस परिदृश्य में नरेन्द्र जैन की कविता क्लैसिकल प्रतिरोध की बाख़बर कविता है, जहाँ अत्याचारी का चेहरा दिखाई देता है, और कवि जिन पीड़ितों की हिमायत कर रहा है उनके चहरे भी दिखाई देते हैं. उनकी कविता ने अपना पैना राजनीतिक फ़ोकस खोया नहीं है, बल्कि उसे मामूली जीवन की तरह जिया है.

नरेन्द्र की कविता एक राजनीतिक विभीषिका, विराट दुर्घटना, आपातकालीन परिस्थिति, अर्जेंट अपील या ख़तरे और चेतावनी के लिए जागने वाली कविता नहीं बल्कि दैनिक जीवन में राजनीतिक चेतना और व्यवहार के दाख़िल होने,जज़्ब होने और ज़ाहिर होने की कविता है. उनका सरोकार उस रोज़मर्रा से है जहाँ 'राजनीतिक' और 'ग़ैर-राजनीतिक' की कोई विभाजक रेखा नहीं होती, और जहाँ राजनीति अलग शख्सियत के साथ, मुखौटा लगाकर, खुद अपनी पैरोडी बनकर नहीं, मानवीय अनुभव के अनिवार्य पहलू की तरह आती है.

नरेन्द्र ने अपनी वामपक्षीय प्रतिबद्धता को बोझ की तरह नहीं ढोया; उसे अपने रचनात्मक और नैतिक जीवन में जज़्ब किया है और एक गहरी ज़िम्मेदारी से उसे बरता है. उनके पास मुक्तिबोध के उस मशहूर सवाल का जवाब है.` -असद ज़ैदी

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आधार प्रकाशन, एससीएफ 267, सेक्टर-16 पंचकूला 134113 (हरियाणा)