Sunday, August 26, 2012

साहित्यिक चोरी का `सितारा`




पाकिस्तान ने हिंदुस्तानी `लेखक` गोपीचंद नारंग को इसी महीने अपने स्वतंत्रता दिवस (14 अगस्त) के मौके पर अपने तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान `सितारा-ए-इम्तियाज़` से नवाजा है। किसी दूसरे के लिखे को  शब्दशः उड़ाकर अपने नाम से छपवा लेने के लिए कुख्यात नारंग की यह एक और बड़ी `उड़ान` है। वे हिंदुस्तान की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं और इस अकादमी का पुरस्कार भी पा चुके हैं। 
 इसे दोनों मुल्कों में सत्ता और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में कमाल की समानता के रूप में भी देख सकते हैं कि जिस `हुनर` को यहां सराहा गया, उसे वहां भी इनाम-इकराम के काबिल समझा गया। नारंग की `साहित्यिक चोरी` पर यह लेख जो `समयांतर, जनवरी, 2009` में प्रकाशित हुआ था, यहां दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है। 

एक ‘सच्चाई’ की संरचना का यथार्थ
-इमरान शाहिद भिंडर

लेखक का मानना है कि ‘‘साहित्य में इससे ज्यादा खराब कोई झूठ हो ही नहीं सकता कि दूसरों के विचारों को लफ्ज-बलफ्ज अपने नाम से प्रकाशित करा दिया जाए और प्रचार साहित्यिक सत्य का किया जाए’’। सवाल यह है कि गोपीचंद नारंग की साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किताब साख्तियात, पस-सख्तियात और मशरिकी शेरियात (हिंदी अनु. संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्रा ) कितनी मौलिक है और कितनी उड़ाई हुई ।

तुरफ़ा सारिक़ हैं दुज़्दे मानी भी
अपनी कर लेते हैं पराई बात
  -मीर औसत अली रश्क

(अर्थ के चोर भी निराले चोर हैं, पराई बात को अपनी बना लेते हैं)

गोपीचंद नारंग लिखते हैं कि ‘‘कुछ लोग स्वयं को साक्षात बुद्धि समझते हैं और उन्हें विश्वास होता है कि अंतिम सच्चाई उन्हीं पर उतरती है। दुख यह है कि साहित्य में न तो कोई अंतिम पैगंबर होता है और न कोई अंतिम सच्चाई होती है।’’ (उर्दू माबाद ज़दीदियत पर मुकालमा, पृष्ठ 80) यहां चूंकि साहित्यिक सत्य का वर्णन अधिक आवश्यक है इसलिए हमें गोपीचंद नारंग के इस उद्धरण के दूसरे भाग से कोई विरोध नहीं है फिर भी इस बात का विश्वास कि उद्धरण के पहले भाग के बारे में लिखते समय नारंग के जेहन में सच्चाई का प्राच्य मानदंड अवश्य होगा जिसके आधार पर उन्होंने ‘सच्चाइयों’ के बीच अंतर करने की कोशिश की है। यह भी डर है कि उन के जेहन में साहित्य के सत्य का तकाजा करने वाली गंभीरता के उलट एक विशेष प्रकार का पूर्वाग्रह बतौर प्रेरक शक्ति काम करता है। बहरहाल नारंग के इस उद्धरण में इस प्रकार के घटक पाए जाते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने साहित्यिक सत्य को अपनी विशेष विचारधारा के अनुसार जाहिर करने की कोशिश की है। दूसरा नुक्ता यह है कि अगर उन को साहित्यिक सत्य ही दरकार होता तो वह उस सत्य के आधार पर केवल अपने व्यक्तित्व को नुमायां करने के लिए साहित्यिक बेईमानी या ‘असत्य’ के कर्त्ता कभी न बनते। चूंकि नारंग का सत्य का मानदंड ‘अंतिम’ के ठीक उलट ‘प्राच्य’ है इसलिए अकादमिक बेईमानी का तकाजा शायद यही था कि वह उनके साहित्यिक ‘सत्य’ के अनुरूप अर्थ प्राप्त करती।
नारंग का प्राचीन ‘सत्य’ का मानदंड ठीक सही, मगर यहां पर यह आवश्यक था कि वह पूर्वाग्रह को ताक पर रखते हुए ‘साहित्यिक सत्य’ पर जोर देने के अतिरिक्त बदलते हुए ‘साहित्यिक सत्यों’ पर पहुंचने के लिए स्वयं साधन तलाश करते। साहित्य में इससे ज्यादा खराब कोई झूठ हो ही नहीं सकता कि दूसरों के विचारों को लफ्ज-बलफ्ज अपने नाम से प्रकाशित करा दिया जाए और प्रचार साहित्यिक सत्य का किया जाए। इससे भी बढ़कर यह कि उसी झूठ को मूल आधार बनाकर पुरस्कार भी हासिल किए जाएं। सच्चे लेखक का कर्त्तव्य है कि अगर उससे कहीं कोताही हो भी गई है तो उस तथ्य को अपनी गलती मानेे और उस सच्चाई के साथ लोगों के सामने तसलीम करे न कि चंद एक व्यक्तियों को उस बेईमानी के बचाव में खड़ा कर दे। नारंग की चोरी की घिनौनी हरकत को देखकर उनकी सत्य की परिभाषा और मानदंड पर अफसोस होता है इस लेख में मैंने नारंग के ‘अंतिम’ नहीं बल्कि प्राचीन ‘सत्य’ के मानदंड को एक बार फिर सामने लाने की कोशिश की है जिसके तहत उन्होंने साहित्यिक ‘सत्य’ के मानदंड का जिक्र किया है। इसके अतिरिक्त यह भी दिखाया है कि प्राचीन ‘सत्य’ का नारंग के ‘सत्य’ का मानदंड वास्तविक सत्य के मानदंड पर पूरा नहीं उतरता। उनका नियुक्त किया हुआ साहित्यिक सत्य का मानदंड नए ‘सत्य’ के अनुसार न होने के कारण गलत सिद्ध हो जाता है। प्राचीन ‘सत्य’ में बेईमानी (नारंग की) आदरणीय थीµनए ‘सत्य’ में ईमानदारी आदरणीय है। प्राचीन सत्य अवास्तविक सत्य है। नया सत्य वास्तविक प्रकार का है। प्राचीन सत्य में जांच-परख की आवश्यकता ही नहीं थी। जो एक बार तय हो गया उसको आंख मूंद कर मानना शुरू हो जाता था। नया सत्य भौतिकवाद से दोस्ती के बाद किसी भी चौखटे को बिना आलोचनात्मक विश्लेषण के स्वीकार नहीं करता। नारंग के प्राचीन ‘सत्य’ को नए साहित्यिक सत्य ने कैसे बेनकाब किया, इस लेख में पाठक एक बार फिर देखेंगे।
आइये गोपीचंद नारंग के ‘सत्य’ के प्राचीन मानदंड को ‘सत्य’ के सामने रखकर परखते हैं। ये सत्य का तकाजा है कि प्राचीन सत्य के मानदंड से न डिगने वाले नारंग ने रेमान सेल्डन की जिस महत्वपूर्ण परिचयात्मक पुस्तक से अपनी किताब में कई अध्याय लफ्ज ब लफ्ज चोरी किए हैं, उस तथ्य को बतलाना जरूरी है। उस ‘सत्य’ के उद्घाटन के दौरान समस्त अध्यायों को लफ्ज ब लफ्ज लिखना बेशक एक कठिन काम है। नारंग के इस (सच्चे) कार्य के कारण कई प्रामाणिक संस्थाएं उन्हें पुरस्कार देने के लिए बेचैन थीं, इसलिए उन्होंने चोरी जैसा कठिन काम आसानी से कर डाला। आज सिद्ध हो गया है कि इस पुरस्कार की हैसियत, साहित्यिक सेवा की जगह उर्दू साहित्य को गलत धारणाओं से मालामाल करने के कारण, राजनीतिक प्रकृति की थी। पाकिस्तान का सत्ताधारी वर्ग, जिसका शिक्षा से कुछ खास लेना-देना नहीं है, मगर खुद को ‘सेक्यूलर’ (धर्म निरपेक्ष) कहलवाने की उनकी इच्छा इस किस्म के एवार्ड देने से भी नुमायां हो जाती है। हिंदुस्तान में कई तरह के प्रोपेगंडे के साथ धर्मनिरपेक्षवाद के नारे की किस्म भी व्यावहारिक मानवीय मूल्यों के ठीक उलट राजनीतिक प्रकार की है। पश्चिम की तरह वहां के लेखकों और बुद्धिजीवियों को साहित्य में भी हर कीमत पर भ्रामक प्रवृत्तियों के प्रकाशन पर कमर कसवाई जाती है। बदले के तौर पर, ऊंचे पदों से भी नवाजा जाता है। साहित्य व चेतना को संघर्ष से दूर, मनुष्य जीवन की असंबद्धता और सूफियाना अंदाज (खानकाही नौईय्यत) की व्यक्ति पूजा का बढ़ावा, मूल्यों की पहचान से छुटकारा, अतीत पूजा की प्रवृत्ति को पुनर्जीवित करने के लिए लगातार चंदे इनायत किए जाते हैं। ऑस्कर वाइल्ड ने जब साहित्य में नैतिक मूल्यों का जिक्र करने वालों की कड़े शब्दों में निंदा की तो किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि नैतिकता (इथिक्स) से उसकी घृणा का कारण उसकी अपनी समलैंगिक प्रकृति है। बाहरी कारणों से नजर हटा भी लें तो भी ऑस्कर वाइल्ड अपनी सीमाओं के घेरे में बंद हो गया। इस तरह उसने उद्देश्यता (पर्पजनेस) को केवल बाह्य यथार्थ से अलग किया, जबकि उद्देश्यता को अपनी बौद्धिक जरूरत के आधीन कर दिया। ठीक इसी तरह नारंग अल्ताफ हुसैन हाली के बाद सबसे बड़े आलोचक बनने की इच्छा रखते थे। जिसके कारण उनमें जरूरत से ज्यादा ‘ताकत’ पैदा हो गई। इतनी ‘ताकत’ कि पूरी किताब को ही अपने ‘सत्य’ के मानदंड को ध्यान में रखते हुए चोरी से भर दिया। किताब के आवरण पर यह सोच, नतीजे और वास्तविक सत्य से मुक्त इन शब्दों का मुलाहिजा फरमाएं:
‘‘प्रोफेसर नारंग का अब तक का अकादमिक व साहित्यिक पुस्तकों में सबसे गहरा और विचारोत्तेजक काम’’
साहित्य के गंभीर पाठक के लिए नारंग की चोरी बेशक एक विचारोत्तेजक क्षण है। नारंग  के ‘‘विचारोत्तेजकवाद’’ का मानदंड बिल्कुल भिन्न है जो उनके प्राचीन ‘सत्य’ को आइना दिखलाता मालूम होता है। परंतु गंभीर पाठक के लिए यह इस मायने में विचारोत्तेजक है कि उर्दू साहित्य को कब तक उसकी अपनी गति से जन्म लेने वाले विचारोत्तेजकतावाद से अलग रखा जाएगा? कब तक साहित्य की व्याख्या अपने दृष्टिकोण के स्थान पर चोरी की परंपरा से चलेगी? इस लेख में किए गए विश्लेषण के अनुसार नारंग की साख्तियात, पस-सख्तियात और मशरिकी शेरियात का विचारोत्तेजक पहलू यही है कि अगर इस पुस्तक से चोरी निकाल ली जाए तो क्या दस पन्ने भी ऐसे रह जाएंगे जो उन के अपने विश्लेषण पर आधारित हों? विश्लेषण का वर्णन नारंग की पुस्तक के टाईटल पर लिखे गए इन शब्दों में देख सकते हैं:
‘‘नयी साहित्यिक थ्योरी, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवं विरचनावाद का सम्यक् परिचय और प्रामाणिक विश्लेषण और विमर्श।’’
इस वाक्य में भी नारंग को विश्लेषक दिखाने की कोशिश की गई है। अब सूरते हाल यहां तक आ पहुंची है कि चोरी और विश्लेषण का अंतर ही खत्म कर दिया गया है। हमारा अध्ययन प्रति क्षण यह सिद्ध करता है कि उनकी भूमिका विश्लेषक की तो दूर संकलनकर्ता की भी नहीं है। संकलनकर्ता मानता है कि वह दूसरों की रचनाओं का संकलन  कर रहा है। नारंग इस पुस्तक के आधार पर एक ‘‘विचारोत्तेजक’’ संवाद आरंभ करने के इच्छुक हैं। हमारी भी यही इच्छा है कि संवाद आरंभ हो और उसका स्वरूप भी विचारोत्तेजक हो। परंतु उनकी इच्छा के ठीक उलट हमारी इच्छा सत्य की प्रगति, बेईमानी से छुटकारा, परंपरावाद से निष्कृति, हीनग्रंथि का खात्मा, दृष्टि को महत्व और इन्हीं बिंदुओं के आधार पर साहित्य व आलोचना के विकास के लिए है।
नारंग की हरकत से तो यही सिद्ध हुआ है कि वह स्वयं चोर से सिद्धांत निर्माता बनने की ‘मानदंडीय छलांग’ लगाने का निरंतर प्रयत्न करते रहे हैं। नया ‘सत्य’ चूंकि प्राच्य सत्य से अधिक बलवान है जिसमें यथार्थ से पर्दा उठाने की योगयता इस हद तक है कि नारंग अपनी व्यक्ति पूजा की अनंत इच्छा न होने के कारण से केवल एक ही दुहाई लुत्फ अंदोज हो पाए हैं। प्राच्च ‘सत्य’ का निष्क्रिय मानदंड बदलते समाज में कोई मायने नहीं रखता। लेनिन ने ठीक ही लिखा था कि ‘‘परिघटना सदैव ज्ञान से अधिक भरपूर होती है। क्योंकि वह हर समय गतिमान रहती है। उसकी गति ज्ञान के अचल मानदंड पर स्थित प्राचीन चौखटों के निर्माता को चुनौती देती है’’ नारंग की इस हरकत की पहचान नये सत्य की पहचान के लिए अवश्य ही रास्ता हमवार करेगी।
किताब के असवरण पर नारंग के ‘सत्य’ का इजहार इन शब्दों में किया है:
‘‘आधारिक रूप की ऐसी पुस्तक जिससे न केवल नई साहित्यिक यात्रा का आरंभ होता है, बल्कि एक नए संवाद की सार्थक और सकारात्मक शुरुआत भी।’’
चोरी मान लेने की सूरत में भी विचारों को उनके ठोस सामाजिक परिप्रेक्ष्य से अलग करने के कारण इस पुस्तक की भूमिका ज्ञान को आगे बढ़ाने के स्थान पर गुमराही के ज्यादा करीब रहती, उस समय तक जब तक कि पाठक स्वयं इतना बुद्धिमान न हो कि वह विचार के सामाजिक अभिप्रेत, पाश्चात्य समाज के अनगिनत वर्ग अंतर्विरोधों, मालिकों और दासों की पहचान के लिए निरंतर संघर्ष और धन से खरीदे हुए बुर्जवा बुद्धिजीवियों के मालिकों के विचारधारात्मक और आर्थिक तत्वों को सुरक्षा प्रदान करने के प्रयत्नों को समझने की कोशिश करता। उसी समय वह देख पाता कि उदारवाद का नकारना जिस ‘दूसरे’ को नजरअंदाज करने की शक्ल में हुआ है उसकी अपनी हैसियत शताब्दियों से एक ऐसे ‘दूसरे’ की है जिसकी अनुभूतियों तक को पूर्वी ‘बुद्धिजीवियों’ ने बौद्धिक गद्दारी करते हुए छीन लिया है। एडोरनो (टी.डब्ल्यू. एडोरनो) जब यहूदियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए मैदान में उतरता है ताकि वह पाश्चात्य विचारों में विचार के अस्त्रा के बल पर कुचलने वाले तत्वों को ढूंढकर निकाले तो पाक व भारत में एक बार फिर परिप्रेक्ष्य के दबने से स्थिति जटिल  हो जाती है। जब यहूदी शक्ति प्राप्त कर लेता है तो जाक दरीदा ‘सत्य’ और ‘बुराई’ और ‘अस्मिता’ को ही नकार देता है। स्पष्ट है कि जब ‘अस्मिता’ दरकार थी तो एडोरनो ने यह सेवा की। जब यहूदियों की संपूर्ण ‘अस्मिता’ कायम हो गई और उन्होंने ‘दूसरों’ की ‘अस्मिता’ को मानने से इंकार कर दिया तो इसके साथ ही नया सिद्धांत उभरा जिसका नाम विरचना (डीकंस्ट्रक्शन) है। जो ‘अस्मिता’ के लिए संघर्ष से रोकती है। ग्यारह सितंबर से पहले जब बुर्जवा जुएबाज बुद्धिजीवियों ने अपना भविष्य का एजेंडा बनाया जिसे 11 सितंबर के बाद वैश्विक स्तर पर ईसाई आतंकवाद से पूरा करना था तो विद्यालयों में विरचना का व्यापार भी आरंभ हो गया। पूर्वी चर्बी चढ़ी कल्पना उसके अभिप्रेत को समझे बिना ही प्रचार पर कमर कसकर तैयार हो गयी।
नारंग की किताब के आवरण पर लिखे शब्द नारंग को हाली के बाद उर्दू संसार का सबसे बड़ा आलोचक और सिद्धांतकार सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या इससे यह अर्थ निकाला जाए कि उर्दू साहित्य में आलोचक बनने के लिए चोर होना जरूरी है? एक सौ साल पहले जिस हरकत के कारण हाली आलोचक के रूप में सामने आए उससे कहीं ज्यादा चोरी की घिनौनी हरकत नारंग करते दिखाई दे रहे हैं। इससे पूर्व कि उनकी तरफ लौटें पहले उनकी और चोरी की तरफ रूख मोड़ते हैं। रेमान सेल्डन लिखते हैंः

''There is another stand in poststructuralist thought which believes that the world is more than a galaxy of texts,
and that some theories of textuality ignore the fact that the discourse is involved in power. They reduce political
and economic forces, and ideological and social control to aspects of signifying processes. When a Hitler or a Stalin
seems to dictate to an entire nation by wielding the power of discourse, it is absurd to treat the effect as simply
occurring within discourse. It is evident that real power is exercised through discourse, and that this power has real
effects… The father of this line of thought is the German philosopher Nietzsche, who said that people first decide
what they want and then fit the facts to their aim: “Ultimately man finds in things nothing but what he himself
has imported into them”. All knowledge is an expression of the ‘will power’. This means that we can not speak
of any absolute truth or of objective knowledge… Foucault regards discourse as a central human activity, but not
as a universal, ‘general text’, a vast sea of signification. He is interested in the historical dimension of discursive
change. What it is possible to say will change from one era to another? In science a theory is not recognized in its
own period if it does not conform to the power consensus of the institutions and official wrgans of science. Mendel’s
genetic theories fell on deaf ears in the 1860s; they were promulgated in a ‘void’ and had to wait until the twentieth
century for acceptance. It is not enough to speak the truth; one must be ‘in the truth’.''
(Selden, Raman, Contemporary Literary Theory, 3rd ed., Britain, 1993, Pp158-159)

अब हम गोपीचंद नारंग की चोरी की ओर तवज्जो केंद्रित करते हैं:
‘‘उत्तर-संरचनावादी चिंतन में एक वैचारिक धारा और भी है, जो आग्रह करती है कि ‘पाठात्मकता’ (टेक्सट्युएलिटि) ही सब कुछ नहीं, वरन् विश्व में शक्ति के खेल में बजाय पाठ के ‘विमर्श’ सम्मिलित है। मिशेल फूको का आधारिक नुक्ता यह है कि ‘पाठात्मकता’ के सिद्धांत राजनीतिक एवं सामाजिक शक्तियों और ‘विचारधारा’ को ‘अर्थोत्पत्ति’ के माध्यम मानकर उनकी हैसियत को घटा देते हैं। वास्तविकता यह है कि जब कोई हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन एक पूरे राष्ट्र को अपने आदेश पर चलाता है, तो ऐसा ‘विमर्श’ की शक्ति के माध्यम से होता है। इस शक्ति के प्रभावों को ‘पाठ’ तक सीमित रखना अनर्गल है। फूको कहता है कि वास्तविक शक्ति का प्रयोग ‘विमर्श’ के माध्यम से होता है और उस शक्ति के ठोस प्रभाव समाहृत होते हैं। यहां यह स्पष्ट है कि फूको अपने विमर्श-सिद्धांत के द्वारा जर्मन दार्शनिक नीत्शे की अभिनव विवृत्ति प्रस्तुत कर रहा है।
‘‘फूको के विचारधारात्मक दृष्टिकोण को कुछ शब्दों में स्पष्ट करना अत्यंत कठिन है। उसने अनेक प्रकरणों में मार्क्सवादी विचारकों का साथ दिया है, किंतु वह एक विज्ञान के रूप में मार्क्सवाद पर क्वचित आस्था नहीं रखता, अपितु वह नीत्शे की नकारवादिता के निकट है, वह अपना विमर्श वहां से प्रारंभ करता है, जहां नीत्शे ने उसे छोड़ा था। किंतु नीत्शे की निराशावादिता से उसे कुछ लेना-देना नहीं। उसका विचार है कि सारा ज्ञान भंगुर एवं अनित्य है।
‘‘फूको की प्रसिद्धि का आधार इस पर है कि उसने उस शक्ति को चुनौती दी है, जो प्रभावशाली सत्ता-संस्थानों को प्रत्येक समाज एवं प्रत्येक काल में लब्ध रही है। फूको का कहना है कि सत्तावान लोग ही निर्धारित करते हैं कि क्या कहना चाहिए, और क्या नहीं। शक्ति आकांक्षा के दमन हेतु प्रयुक्त की जाती है जैसे परा अहम इदम् को दबाता है। किंतु फूको आकांक्षा का पक्ष लेता है और उन तत्वों का जिनको समाज अपनी परिधि से निर्वासित रखता है। दूसरे उत्तर-संरचनावादी विचारकों के समान फूको भी अहम के विरुद्ध है। आत्म की अस्ति उनके निकट एक पारंपरिक धार्मिक अवधारणा है, एक मिथ्या अतींद्रियता जिसको विलसित होना चाहिए। ये विचारक पराभौतिकता एवं प्रत्येक प्रकार के अधिकार के भी विरुद्ध हैं। ये विश्वेतर किसी निगूढ़ रहस्य को ढूंढ़ना ही नहीं चाहते, जो ब्रह्मांड का रहस्य खोल सके, क्योंकि उनका विश्वास है कि विश्व में प्रत्येक वस्तु की व्याख्या संभव ही नहीं।
‘‘फूको (जन्म 1926) ‘कॉलेज दि फ्रांस’ पेरिस में ‘हिस्ट्री ऑफ सिस्टम्स ऑफ थॉट’ का प्रोफेसर था, प्रशिक्षण की दृष्टि से वह दार्शनिक था, और अनेक कृतियों का सर्जक था। उसकी वे पुस्तकें जो अंग्रेजी में अनुदित हो चुकी हैं, संदर्भिका में देखी जा सकती हैं। 1984 में फूको का देहांत हो गया।
‘‘नीत्शे ने कहा था कि ‘लोग पहले निश्चित करते हैं कि उन्हें क्या चाहिए और फिर तथ्यों को अपने लक्ष्य के अनुरूप ढाल लेते हैं। फलतः मनुष्य को वस्तुओं में वही कुछ दृष्टिगत होता है, जो उनमें स्वयं उसने प्रविष्ट किया है। फूको इस बहस को विस्तार देते हुए कहता है कि समस्त ज्ञान शक्ति की आकांक्षा (विल टु पावर) का व्यंजक है। इसका अर्थ हुआ कि हम निरपेक्ष यथार्थ अथवा वस्तुनिष्ठ ज्ञान की बात नहीं कर सकते। लोग किसी दर्शन या वैज्ञानिक सिद्धांतों को केवल उसी समय ठीक समझते हैं, जब वह अपने युग के राजनीतिक एवं बौद्धिक सत्ता-संस्थानों अथवा विचारधारा या सच्चाई से संपर्क रखे अथवा तत्कालीन प्रचलित मानदंडों पर पूरा उतरे।
‘‘फूको ‘विमर्श’ को मानव-मस्तिष्क की केंद्रीय गतिविधि मानता है, एक सामान्य सार्वभौम ‘पाठ’ के रूप में नहीं, वरन अर्थोत्पत्ति के एक महासागर के रूप में। वह परिवर्तन के ऐतिहासिक आयाम में रुचि रखता है। वह कहता है कि जो कुछ कहना शक्य है वह एक युग से दूसरे युग में परिवर्तित हो जाता है। विज्ञान में भी कोई सिद्धांत उस समय तक स्वीकार नहीं किया जाता, जब तक कि वह विज्ञान के सत्ता-संस्थानों और उनके शासकीय व्याख्याकारों की शक्तिगत संधि से सामंजस्य न उत्पन्न कर ले। फूको कहता है मेंडेल के प्रजनन-ज्ञान के सिद्धांत का 1860 के काल में कोई स्वागत नहीं हुआ था, गोया ये विचार शून्य में प्रस्तुत हुए थे और उन्हें अपने स्वीकार हेतु बीसवीं शताब्दी की प्रतीक्षा करनी पड़ी। उसका प्रसिद्ध कथन है: ‘केवल सत्य बोलना पर्याप्त नहीं है; सत्य के ‘भीतर’ होना भी आवश्यक है।’’
(पृष्ठः 152-153 संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्राः गोपीचंद नारंग; अनुवाद देवेश, साहित्य अकादेमी, द्वितीय संस्करण, 2004। आगे के सभी उद्धरण इसी पुस्तक से लिए गए हैं।)
हमारा अध्ययन अंततः यह सिद्ध करता है कि नारंग की पुस्तक में फूको पर लिखा हुआ प्रत्येक शब्द सेल्डन की पुस्तक का अनुवाद है।
जैसा कि हमने पहले स्पष्ट किया है उन्होंने इस पुस्तक से अधिकतम अध्याय चोरी किए हैं। इस दावे की सच्चाई को सिद्ध करने के लिए हम सेल्डन के जोनाथन कलर पर लिखे गए अध्याय से उद्धरण पेश करते हैं। सेल्डन लिखते हैं:
“Jonathan Culler (see also chapter 5) has argued that a theory of reading has to uncover the interpretative
operations used by readers. We all know that different readers produce different interpretations. While this has led
some theorists to despair of developing a theory of reading at all, Culler argues in The Pursuit of Signs (1981) that it
is this variety of interpretation which theory has to explain. While readers may differ about meaning, they may well
follow the same set of interpretative conventions…''
(Selden, P. 62).

नारंग का कारनामा मुलाहिजा फरमाएं:
‘‘जोनाथन कुलर इस बात पर बल देता है कि पढ़त के सिद्धांत हेतु आवश्यक है कि वह ग्राह्यता और आकलन को नियमबद्ध कर सके, जो सामान्य रूप से पढ़त के दौरान प्रयुक्त होते हैं। इस बात को दृष्टिगत रखना चाहिए कि एक ही पाठ से विभिन्न पाठक विभिन्न अर्थ निकालते हैं। यद्यपि व्याख्या और ग्राह्यता का यही वैविध्य वस्तुतः पाठकवादी आलोचना के कई सिद्धांतकारों के लिए कठिनाई का हेतुक बनता है, लेकिन कुलर युक्तियुक्त बहस करते हुए कहता है कि सिद्धांत की चुनौती यही है कि विभिन्न पढ़तों की संभावनाओं और अर्थों को नियमबद्ध किया जाए, इसलिए कि पाठकों में अर्थ की भिन्नता तो हो सकती है, लेकिन ग्राह्यता और व्याख्या के लिए पाठक जो प्रणालियां और विधियां प्रयोग में लाते हैं, उनमें कुछ तो मिलती-जुलती होंगी और उनके अन्वेषण का प्रयास किया जा सकता है।’’                                   (नारंग, पृष्ठ.242)
सेल्डन के जूलिया क्रिस्टीवा पर लिखे गए अध्याय में से इस उद्धरण को देखें:
''The word ‘revolution’ in Kristeva’s title is not simply meta- phoric, the possibility of radical social change is,
in her view, bound up with the disruption of authoritarian dis-courses. Poetic language introduces the subversive
openness of the semiotic ‘across’ society’s ‘closed’ symbolic order: ‘What the theory of the unconscious seeks,
poetic language practices, within and against the social order.’ Sometimes she considers that the modernist poetry
actually prefigures a social revolution which in the distant future will come about when society has evolved a
more complex from. However, at other times she fears that bourgeois ideology will simply recuperate this poetic
revolution by treating it as a safety valve for the repressed impulses it denies in society. Kristeva’s view of the
revolutionary potential of women writers in society is just as ambivalent…''
(Seldon, P. 142)

‘‘ क्रिस्टीवा की क्रांति की अवधारणा यह है कि सामाजिक मूलगामी परिवर्तन सत्तावान विमर्श में विध्वंस एवं विघ्नकारिता की प्रक्रिया पर निर्भर है। काव्य-भाषा समाज के संहिताबद्ध एवं बंदी प्रतीकात्मक तंत्रा में संकेतपरक विनाशकारिता के स्वतंत्रागमन (खुली डली आलोचना) का मार्ग खोलती है। अवचेतन जो चाहता है, काव्य-भाषा उसको समाज के अंदर और समाज के विरुद्ध बरत सकने में समर्थ है। क्रिस्टीवा को विश्वास है कि सामाजिक तंत्रा जब अधिक संहिताबद्ध, अधिक जटिल हो जाएगा, तो नई काव्य-भाषा के माध्यम से क्रांति लाई जा सकेगी, किंतु उसको यह भी आशंका है, कि बुर्जुवा विचारधारा प्रत्येक नई वस्तु को अपनाकर उसका डंक निकाल देती है। अतः संभव है कि काव्यगत क्रांति को भी बुर्जुवा विचारधारा एक सुरक्षा-वाल्व के रूप में प्रयुक्त करे, उन दबी हुई अशांतियों के निस्सरण-हेतु जिनकी समाज में सामान्यतः अनुमति नहीं है।’’
जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि नारंग साहब की सारी किताब अनुवाद है परंतु उन्होंने चूंकि स्वयं को अनुवादक नहीं कहा इसलिए हमें उनको चोर कहना पड़ रहा है। सेल्डन की पूरी पुस्तक चंद एक उद्धरणों को छोड़कर नारंग ने अपने नाम से प्रकाशित कराई है। उन के लिए बैठकर चोरी लिखना इसलिए सरल हो गया कि पुरस्कार उनकी प्रतीक्षा में था। किसी भी दूसरे व्यक्ति के लिए यह काम सरल नहीं है कि वह पाठक को विश्वास दिलाने के लिए अपना समय नष्ट करता रहे। इसलिए यहां सेल्डन की पुस्तक से अधिक उद्धरण देने के स्थान पर हम केवल पृष्ठों की गिनती देने तक ही सीमित रहेंगे। गंभीर पाठकों को मूल स्रोतों तक पहुंचने में कठिनाई नहीं होगी।
रामन सेल्डन की पुस्तक के पृष्ठ: 27-42, 49-70, 149-158, 86-103
गोपीचंद नारंग की किताब साख्तियात, पस-सख्तियात और मशरिकी शेरियात के पृष्ठ: 79-105, 288-328, 234-240, 243-267
हिंदी अनुवाद संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्रा के पृष्ठः 61-83, 223-248, 173-185, 187-208
हमारा यह दावा है कि सेल्डन की पुस्तक से दिए गए संपूर्ण पृष्ठ गोपीचंद नारंग ने अपने नाम से प्रकाशित कराए हैं। चकित करने वाली बात यह है कि नारंग ने इस पुस्तक में कदाचित ही चंद शब्द स्वयं लिखे हों। यह इसलिए और भी आश्चर्य की बात है कि नारंग साहब को लेखक के तौर पर अपना नाम लिखने की क्या आवश्यकता थी? क्या उनको यह भी चिंता नहीं थी कि आज नहीं तो कल यह रहस्य जगजाहिर हो जाएगा?
सेल्डन की पुस्तक से नारंग की चोरी के तथ्य पूरे खुलासे के साथ पेश करने के बाद अब एक दूसरी पुस्तक की तरफ आते हैं। इस पुस्तक से नारंग ने रोलां बार्थ पर लिखे गए लेख को उड़ाया है। याद रहे कि इसी लेख के कई भाग जोनाथन कलर की स्ट्रक्चरल पोएटिक्स से चुराए गए हैं। परंतु यहां पर जो उद्धरण पेश किए जा रहे हैं वे जॉन स्टुरॉक की पुस्तक से लिए गए हैं। स्टुरॉक ने इस पुस्तक में पांच उत्तर आधुनिक चिंतकों पर लिखे गए लेखों का संकलन किया है। जिस लेख की नारंग ने चोरी की वह स्टुरॉक का अपना लिखा हुआ है। स्टुरॉक ने लेखकीय सच्चाई का मान रखा और संपूर्ण लेखों को उनके लेखकों के नाम से प्रकाशित किया। नारंग ने दूसरी भाषा का भरपूर लाभ उठाते हुए बार्थ पर लिखे हुए लेख को अपने नाम कर लिया। आइए दोनों की तुलना पेश करते हैं। जॉन स्टुरॉक लिखते हैं:
''Existentialism, on the contrary, preaches the total freedom of the individual constantly to change… Barth, like
Sartre, pits therefore the fluidly, the anarchy, even, of existence against the rigor mortis of essentialism; not least
because, again following sartre, he sees essentialism as the ideology which sustains that tradional bugbear of all
French intellectuals, the bourgeoisie… he writes at the conclusion of his most ferociously anti-bourgeois book, the
divesting Mythologies (1957…
''In one way, Barthes goes beyond Sartre in his abhorrence of essentialism. Sartre, as so far as one can see,
allows the human person a certain integrity or unity; but Barthes professes a philosophy of disintegration, wherby
the presumed unity of any individual is dissolved into a plurality or discontinuous. This biography is especially
offensive to his as a literary form because it represents a counterfeit integration of its individual. It is a false
memorial to a living person…''
(Sturrock. John: Structuralism and Since, London, Oxford University Press, 1979, P. 53).

नारंग की तरफ चलते हैं:
‘‘अनिवार्यतावाद (एसेंशियलिज्म) की तुलना में अस्तित्ववाद ने मानव की उस मूलभूत स्वतंत्राता पर बल दिया था, जो प्रत्येक परिवर्तन का आधार है। बार्थ भी सार्त्रा के समान अनिवार्यतावाद एवं दमनकारिता के विरुद्ध हर प्रकार के विद्रोह, वरंच अराजकता तक का कायल था। सार्त्रा के समान वह भी ‘अनिवार्यता’ को बुर्जुवाजी का चिह्न समझता था और पूरी शक्ति से उसका खंडन करता था, जैसा कि उसकी प्रारंभिक वादार्थक कृति ‘माइथॉलॉजिज’ (1957) से प्रकट है।
‘‘अनिवार्यतावाद और बुर्जुवाजी के विरोध में बार्थ एक दृष्टि से सार्त्रा से भी आगे निकल गया, क्योंकि सार्त्रा एकत्व एवं अखंडता (इंटिग्रिटि) को नहीं नकारता था, किंतु बार्थ अपनी धुन में बुर्जुवाजी अखंडता के विरुद्ध उच्छेदन के दर्शन के समर्थन तक से विरक्त नहीं था। उसका कहना था कि मानव का एकत्व एक प्रकार की भ्रांति है। यदि ध्यान से देखा जाए तो हममें से प्रत्येक वस्तुतः ‘अनेक’ है। वह एकत्व को सिरे से मानता ही नहीं था, ईश्वर को भी नहीं। प्रत्येक वह वस्तु, जो असतत एवं बहुल है, बार्थ उसका समर्थन करता था। उसका कहना है कि जीवनी इसीलिए साहित्य नहीं कि एकत्व उत्पन्न करने की चेष्टा में वह छल का नमूना प्रस्तुत करती है और अवास्तविक है।’’
जॉन स्टुरॉक के इसी लेख में से एक और उद्धरण पर विचार करते हैं:
''His arch enemy is the doxa, the prevailing view of things, which very often prevails to the extent that people are
unaware it is only one of several possible alternative views. Barthes may not be able to destroy the doxa but he can
lessen its authority by localizing it, by subjugating it to a paradox of his own…
''Barthes is only fully to be appreciated, then, as some one who set out to disrupt as profoundly as he could
the orthodox views of literature he found in France… The grievances against contemporary criticism with which
Barthes began were deeply influential on what he came to write later. There were four main ones. First, he objected
that literary criticism was predominantly a historical, working as it did on the assumption that the moral and the

formal values of the texts it studied were timeless… Barthes was never a member of the Communist party—let us
say neo-Marxist objection. He dismissed existing histories of French literature as meaningless chronicles of names
and dates…''
(Sturrock, Pp. 54-55)

इसी पन्ने पर नारंग ने पाठक की आंख में धूल झोंकने के लिए पैराग्राफ के विस्तार को बड़ी महारत से तब्दील किया है यदि पाठक भी समझ-बूझ रखने वाला हो तो यह चोरी भी उसकी आंख से ओझल नहीं रह सकती। उन के उद्धरण की तरफ पलटते हैं:
‘‘वह हर चीज का निषेध करता था, जिसे उसके युग की बुर्जुवाजी ने युगीन बौद्धिकता के रूप में अंगीकार कर रखा था। बार्थ का सर्वाधिक प्रिय अभिव्यक्तिपरक हथियार ‘विरोधाभास’ है। डॉक्सा अर्थात वस्तुओं और परिस्थिति की स्वीकृत अवधारणा, जिसे बहुसंख्या स्वीकार करती हो, उसे बार्थ अपना सबसे बड़ा शत्राु समझता था। वह डॉक्सा को छिन्नमूल कर सका अथवा नहीं, किंतु उसने इसका बोध कराया कि यथार्थता की वह संकल्पना, जिसे सामान्यतया लोग नहीं समझते हैं, यथार्थता की संभाव्य संकल्पनाओं में से मात्रा एक होती है।
‘‘जिस प्रकार संस्कृति में ‘डॉक्सा’ होता है, साहित्य में भी डॉक्सा होता है, जिसका खंडन आवश्यक है। अतः साहित्य की अनुकरणात्मक अवधारणा पर भी रोलां बार्थ ने भीषण प्रहार किया। सांस्थानिक आलोचना पर भी उसने बार-बार प्रहार किए। हालांकि इसके अनंतर वह ‘कॉलेज द फ्रांस’ में पढ़ाने लगा था, किंतु उसने मृत्युपर्यंत अपनी स्वतंत्राता को अक्षुण्ण रखा और विवशता स्वीकार नहीं की। (इकोल परातीक द हैतेस इत्युदेस इन पेरिस) से आंशिक संपृक्ति के कारण उसे सदैव इतनी स्वतंत्राता रही कि अशुद्ध रूप से वह अपने विचारों को स्वतंत्रारूपेण प्रस्तुत कर सके। उसे साहित्यिक सिद्धांतों पर चार विशेष आपत्तियां थीं, पहली यह कि साहित्यिक आलोचना में प्रभुत्वशाली रुझान अनैतिहासिकता का है, क्योंकि सामान्य धारणा यह है कि पाठ के रूपगत एवं नैतिक मूल्य शाश्वत हैं। बार्थ कभी साम्यवादी नहीं रहा, किंतु साहित्य की ऐतिहासिकता के संबंध में उसका सिद्धांत मार्क्सवादी तो नहीं, लेकिन नवमार्क्सवादी अवश्य है। उसने अपने युग के साहित्येतिहासों को नामों और तारीखों (वर्षों) का निष्प्राण गट्ठर घोषित किया।’’                          (नारंग, वही, पृ. 129)
स्टुरॉक ने बार्थ के हवाले से दूसरी आपत्ति इन शब्दों में उठायी है:
''Barthes’s second complaint against academic criticism was that is was psychologically naive and
deterministic… when critics chose to exlain textual data by biographical ones, or the work by the life… The
elements of a literary work and this is an absolutely central point in literary structuralism—must be understood in
the first instance in their relationship to other elements of that work…''
(Sturrock, P. 65)

नारंग साहब ने स्टुरॉक के बार्थ के हवाले दूसरी आपत्ति पर इन शब्दों में कब्जा जमाने की कोशिश की है:
‘‘सांस्थानिक एकस्तरीय आलोचना पर उसकी दूसरी आपत्ति यह थी कि सांस्थानिक आलोचना का मनोविज्ञान-बोध आपराधिक सीमा तक बचकाना है। जीवनवृत्तात्मक जानकारियों की सहायता से पाठ को समझना उसके निकट अक्षम्य अपराध था (यद्यपि अब तक बहुत से देशों में इसका चलन है)। इसके निकट साहित्यिक पाठ के तत्वों को केवल उन अंतःसंबंधों की सहायता से समझा जा सकता है, जो वह पाठ के दूसरे तत्वों से रखते हैं। यह नुक्ता संरचनावादी विचारणा की आधारशिला है।’’
(नारंग, वही, पृ. 130)
स्टुरॉक के बार्थ के हवाले से पाठक आलोचना पर तीसरी आपत्ति स्टुरॉक के शब्दों में यूं है:
'They could see only meaning in the texts they concerned themselves with, and that one meaning was usually a
very literal one. This they subsequently held the meaning of the text, and that to search further for supplementary
or alternative meanings was futile. They were men of narrow and autocratic temper who fancied they were merely
being culpably dogmatic. Their minds were closed to the ambiguities of language, to the co-existence of various
meanings within a single form of words…''
(Sturrock, Pp. 57-58)

नारंग ने स्टुरॉक के बयान किए हुए बार्थ की तीसरी आपत्ति को इन शब्दों में अपनी चोरी की भेंट चढ़ाया है:
‘‘सांस्थानिक एवं रूढ़िप्रेमी आलोचना पाठ के केवल निर्धारित और निश्चित अर्थ को उचित समझती है और अत्यंत ढिठाई से उस पर आग्रह करती है। निर्धारित अर्थ तो केवल शब्दकोशीय अर्थ हो सकते हैं और साहित्य में बहुधा वे अनर्गलता की सीमा तक गलत होते हैं। सांस्थानिक आलोचकों के संबंध में बार्थ ने लिखा है कि उनकी बुद्धि छोटी और दृष्टि संकुचित होती है, वे संव्यूहन के शिकार हैं और साहित्य में बहुमत के झंडाबरदार हैं, अतएव साहित्य के आस्वाद में भागीदारी के लिए उनकी निरंकुशता को छिन्न-भिन्न करना आवश्यक है। साहित्य निसर्गतः द्वयर्थकता से भरा हुआ है और एक ही रूप में अनेक अर्थ युगपत् कार्यान्वित हो सकते हैं।’’
(नारंग, पृ. 130)
यहां पर हम यह आशा रखते हैं कि चौथी आपत्ति की सच्चाई जानने के लिए पाठक जॉन स्टुरॉक के पृष्ठ सं. 58-59 और नारंग साहब की पुस्तक के पृष्ठ 130 का स्वयं पाठ करेंगे। हमारा यहां नारंग की चुराई हुई आपत्तियों पर यह आपत्ति है कि वह इस हद तक चोरी कर के उर्दू साहित्य में पहले से कायम परंपरा को क्यों तूल देना चाहते थे?
पाठक इन उद्धरणों से यह नतीजा बिल्कुल न निकालें कि चोरी की हद नारंग के बार्थ पर लिखे गए लेख तक ही सीमित है। न केवल यह लेख बल्कि उन्होंने स्टुरॉक के लेख में बार्थ की संपूर्ण पुस्तकों के ब्रीफ विश्लेषण को भी शब्दशः उठाया हुआ है। जॉन स्टुरॉक का यह लेख सत्ताइस पृष्ठों का है और उनका विश्लेषण काफी विशद है। नारंग ने चूंकि किसी भी मूल स्रोत तक पहुंचने की कोशिश नहीं की इसलिए उनकी अकादमिक क्षमता का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।
बहरहाल, इनके अतिरिक्त कुछ और पुस्तकों पर भी नजर डाली जा सकती है।  कैथरिन बेलसी लिखती हैं:
''From this post-Saussurean perspective it is clear that the theory of literature as expressive realism is no longer
tenable. The claim that a literary form reflects the world is simply tautological. If by ‘the world’ we understand the
world we experience, the world differentiated by language, then the claim that realism reflects the world means that
realism reflects the world constructed in language. This is a tautology…''
(Belsey, Catherine: Critical Practice London, Routledge, 2003, P. 43).

नारंग यूं चोरी फरमाते हैं:
‘‘इस सॉस्युअरी परिप्रेक्ष्य से स्पष्ट है कि साहित्य का यह सिद्धांत, जिसे यथार्थवाद कहते हैं, रक्षणीय नहीं है। यह दावा कि साहित्यिक रचना, यथार्थ का प्रतिबिंब पेश करती है पुनरुक्तिपूर्ण (ट्यूटोलॉजिकल) है। यदि यथार्थ से हमारा आशय यह यथार्थ है, जिसका हम अनुभव करते हैं, यानी जो विभेदात्मक रूप से भाषा के माध्यम से स्थापित होता है तो यह दावा कि यथार्थवादी लेखन यथार्थ का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है, वस्तुतः यह हुआ कि यथार्थवादी लेखन उस विश्व का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है, जो भाषा के माध्यम से स्थापित होती है (कांस्ट्रक्टेड इन लैंगुएज)। जाहिर है यह ‘पुनरुक्ति’ के सिवा कुछ नहीं है।’’         (नारंग, पृ. 59-60)
गोपीचंद नारंग ने जो उद्धरण उठाया है उसमें बेलसी के शब्द ‘पोस्ट’ को छोड़ दिया है जिससे बेलसी का कायम किया हुआ अर्थ प्रभावित करने के साथ-साथ उसकी पृष्ठ संख्या का हवाला भी कहीं नहीं दिया है। दूसरा उन्होंने उपरोक्त उद्धरण में ‘अर्थ दोहराना’ को इनवर्टेड कॉमों में लिखकर यह असर पैदा करने का प्रयत्न किया है। यह विशेष संदर्भ किसी दूसरे चिंतक से लिया गया है और यह महान कार्य नारंग स्वयं ही कर रहे हैं। हमारा अध्ययन यह कहता है उन्होंने गलत प्रभाव कायम करने की कोशिश की है। पूरा का पूरा उद्धरण जिसे यहां संक्षेप में पेश किया गया है, बेलसी की पुस्तक से यथावत उठाया गया है। उपरोक्त विश्लेषण कैथरिन बेलसी का है, गोपीचंद नारंग का नहीं है। पश्चिम में बेलसी की यह पुस्तक एक परिचयात्मक पुस्तक समझी जाती है। जो बरतानिया में बी.ए. के विद्यार्थियों के लिए आलोचनात्मक सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय पेश करती है।
यहां पाठकों के लिए यह बात भी समझ लेनी जरूरी है कि गोपीचंद नारंग ने केवल एक ही प्रश्न की नकल नहीं मारी बल्कि उन्होंने बेलसी की इसी पुस्तक से कई हिस्से शब्दशः अनुवाद करके अपने नाम से प्रकाशित कराए हैं। अब बेलसी की ओर पलटते हैं:
''Saussure’s argument depends on the different division of the chain of meaning in different languages. ‘If words
stood for pre-existing concepts they would all have exact equivalents in meaning from one language to the next,
but this is not true’ (Saussure, 1974; 116). The truth is that different languages divide or articulate the world in
different worlds. Saussure gives a number of examples. For instance, where Frence has the single Mouton. English
differentiates between Mutton, which we eat and sheep…''
(Belsey, 36-37)

नारंग के कारनामे की ओर देखें:
‘‘सॉस्युअर का तर्क शब्दों की उन लड़ियों पर आधृत था, जो एक अवधारणा के लिए विभिन्न भाषाओं में पाई जाती हैं। यदि शब्द पहले से ही उपस्थित अवधारणाओं हेतु स्थापित होते, तो एक भाषा से दूसरी भाषा में उनके अर्थ पर्याय होते, लेकिन ऐसा नहीं है (कोर्स पृ. 116)। वास्तविकता यह है कि विभिन्न भाषाएं विश्व की वस्तुओं को विभिन्न रूप से देखती और प्रकट करती हैं। सॉस्युअर ने कई दृष्टांत दिए हैं। फ्रांसीसी में एक शब्द माउटन । इसके विपरीत अंग्रेजी उसके पर्याय मटन (बकरी का मांस) और शीप (भेड़) में अंतर करती है।’’                              (नारंग, 53-54)
लंबाई के कारण इस उद्धरण को भी संक्षिप्त रखा गया है। इस प्रश्न में सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि बेलसी ने अपने विश्लेषण में सॉस्युअर की पुस्तक से लिए गए हवाले को पृष्ठ संख्या सहित पेश किया है। इसका कारण यह है कि बेलसी सॉस्युअर का विश्लेषण अपने अंदाज में पेश कर रही हैं। नारंग यह दिखलाने  की कोशिश करते हैं कि सॉस्युअर का हवाला उन्होंने बेलसी की पुस्तक से नहीं निकाला है बल्कि उन्होंने सॉस्युअर का सीधा संदर्भ दिया है। यह साहित्यिक बेईमानी का स्पष्ट उदाहरण है।
नारंग को इस कारण काफी सक्रिय और सजग माना जा सकता है कि उन्होंने किसी एक पुस्तक पर हाथ साफ नहीं किया बल्कि कई पुस्तकों को बंधक बनाया है। एक ओर तो उनको पुस्तक की संख्या दरकार थी। जबकि दूसरी ओर शायद उन्हें अपना साहित्यिक कद काठी चाहिए थी, उनको यह भी अहसास था कि बहुसंख्यक उर्दू वालों को, जो चंद एक अंग्रेजी के नामों से ही प्रभावित हो जाते हैं, कई प्रकार की पुस्तकों के नाम लेने से उनके दिमागों पर नारंग के कारनामे का असर कई गुना होगा। बहरहाल केवल एक सीमा तक ही उनकी इस इच्छा की पूर्ति हो पाई है। उसके बाद नारंग की ‘सच्चाई’ के मानदंड के विपरीत सच्चाई का सामने आना लाजमी था। उन्होंने उपरोक्त सारे लेखकों का मजाक उड़ाने के बाद रॉबर्ट स्कोल्ज पर भी अपनी ‘सच्चाई’ को थोप दिया है। आइए पहले स्कोल्ज की ओर चलते हैं:
''Attempting to distinguish between constant and variable elements in a collection of a hundred Russian fairytales,
Propp arrives at the principle that though the personages of a tale are variable, their functions in the tales are
constant and limited Describing function as “An act of a character, defined from the point of view of its significance
for the course of the action”, Propp developed inductively four laws which put the study of folk literature and of
fiction itself on a new footing. In their baldness and universality, laws 3 and 4 have the shocking effect of certain
scientific discoveries:
1. Functions of characters serve as stable, constant elements in a tale, independent of how and by whom they are
fulfilled; they constitute the fundamental components of a tale.
2.The number of functions known to the fairy-tale is limited.
3.The sequence of functions is always identical.
4.All fairy tales are of one type in regard to their structure.
(Morphology of the Folktale, Pp. 21,22,23)
''In comparing the functions of tale after tale, Propp discovered that his total number of functions never surpassed
thirty-one, and that however many of the thirty-one functions a tale had (none has every one) those that it had
always appeared in the same order… After the initial situation, in which the members of a family are enumerated or
the future hero is introduced, a tale begins, consisting of some selection of the following function in the following
order.
1.One of the members of a family absents himself from home.
2. An interdiction is addressed to the hero.
3. The interdiction is violated.
4. The villain makes an attempt at reconnaissance.

5. The villain receives information about his victim.
6. The villain attempts to deceive his victim in order to take possession of him or of his belongings.
7. The victim submits to deception and thereby unwittingly helps his enemy.''
(Scholes, Robert: Structuralism in Literature, New York, Vail-Ballou Press, 1947 Pp. 62-70)

यह सूची इकत्तीस पर जाकर समाप्त होती है। पूरी सूची से लेख की लंबाई अनावश्यक बढ़ जाएगी। यदि पूरी सूची दी जाए तो पृष्ठों की संख्या लगभग नौ हो जाएगी। इसलिए पाठक इन पृष्ठों पर स्वयं गौर करें, नारंग की चोरी का विस्तार यहां प्रस्तुत है:
अब नारंग की हरकत पर नजर डालें:
‘‘प्रॉप ने एक सौ रूसी कहानियों का चयन किया और अपने विश्लेषण से बताया कि चरित्रों तथा उनके ‘प्रकार्यो’ के आधार पर लोक-कथाओं की आंतरिक संरचना को अनावृत किया जा सकता है और उनका श्रेणीकरण किस सुघड़ता से किया जा सकता है। उसने इन कहानियों के विभिन्न और सर्वनिष्ठ तत्वों का विश्लेषण किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इन कहानियों में यद्यपि चरित्रा बदलते रहते हैं, किंतु चरित्रों का ‘प्रकार्य’ निश्चित है और सारी कहानियों में एक-सा रहता है। चरित्रा के प्रकार्य को चरित्रा की वह प्रक्रिया मानते हुए, जो कहानी की अर्थवत्ता के दूसरे अवयवों से संयुक्त है, प्रॉप ने स्थायी रूप से चार नियम राशिकृत किए, जिनसे आगे चलकर लोक-साहित्य और आख्यान के अध्ययन का नया मार्ग खुल गया। सार्वभौमिक चरितार्थता एवं मौलिकता की दृष्टि से नियम तीन और चार को अधिसंख्य परवर्ती विचारकों ने वैज्ञानिक आविष्कार की कोटि में रखा है:
1. चरित्रों के ‘प्रकार्य’ कहानी के स्थिर और असंदिग्ध तत्व हैं। इससे निरपेक्ष कि कौन उनको निष्पन्न करता है, ये कहानी के मूलभूत अवयव हैं।
2. ‘प्रकार्य’ की संख्या कहानियों में सीमित है।
3. ‘प्रकार्य’ का अनुक्रम सदैव एक-सा रहता है।
4. वैविध्य के बावजूद सारी कहानियों में ‘संरचना’ समान रहती है।
‘‘चरित्रा के ‘प्रकार्य’ की दृष्टि से एक के बाद एक कहानी का विश्लेषण करते हुए प्रॉप इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कहानियों में चरित्रों के प्रकार्यों की कुल संख्या इकतीस से किसी प्रकार नहीं बढ़ती। हालांकि कतिपय कहानियों में प्रक्रिया की कुछ कड़ियां नहीं मिलतीं, किंतु उनका अनुक्रम सदैव वही रहता है। संख्या में अंतर हो सकता है, किंतु क्रम अपरिवर्तित रहता है। नीचे इन प्रकार्यों की सूची (विस्तार के लिए मूल को देखना आवश्यक है) दर्ज की जाती है, अर्थात् प्रारंभिक दृश्य के पश्चात जब घर के व्यक्ति सामने आते हैं और नायक की पहचान हो जाती है तो कहानी इन प्रकार्यों में सभी अथवा कुछ की सहायता से इसी क्रम से बढ़ती है:
1. परिवार का कोई सदस्य घर से गायब हो जाता है।
2. नायक पर प्रतिबंध लगाया जाता है।
3. प्रतिबंध की अवहेलना की जाती है।
4. खलनायक जासूसी का प्रयत्न करता है।
5. खलनायक को अपने ‘शिकार’(विकटिम) के संबंध में सूचना मिलती है।
6. खलनायक अपने ‘शिकार’ को धोखा देता है, जिससे कि उस पर या उसकी संपत्ति पर अधिकार कर ले।
7. शिकार कपटपाश में आ जाता है तथ अनभिज्ञता और नासमझी में शत्राु की सहायता करता है।’’                      (नारंग, पृष्ठ 86-87)
नारंग भी इस सूची को इकत्तीस तक लफ्ज ब लफ्ज नकल करने के अतिरिक्त स्कोल्ज के विश्लेषण को यथावत उठाते हुए  पृष्ठ नं. ..... तक ले जाते हैं लेकिन कहीं भी हवाला देना जरूरी नहीं समझते।
इन पृष्ठों के अतिरिक्त नारंग इसी पुस्तक के विभिन्न भागों से भी जीभर के उद्धरणों की चोरी करते दिखाई देते हैं। आइए पहले अंग्रेजी में राबर्ट स्कोल्ज के इस उद्धरण पर विचार करें:
'The last half of the nineteenth century and the first half of the twentieth were characterized by the fragmentation
of knowledge into isolated disciplines as formidable in their specialization as to seem beyond all synthesis. Even
philosophy, the queen of the human sciences, came down from her throne to play solitary word games. Both the
language philosophy of Wittgenstein and the existentialism of the Continental thinkers are philosophy or retreat…''
(Scholes: Structuralism in Literature, New York, Vail Ballou Press, 1974 P.1)

गोपीचंद नारंग का प्रश्न देखिए:
‘‘उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध और बीसवीं शती के पूर्वार्ध में मानवीय चिंतन विशेषज्ञता के विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित होकर इस सीमा तक खंड-खंड हो गया था कि उसमें किसी प्रकार की कोई सूत्राबद्धता प्रतीत नहीं होती थी। और तो और विशुद्ध दर्शन भी, जिसे मानविकी का सम्राट कहा जाता है, यह भी शब्दों के अलग-अलग जा पड़ने वाले खेल में लग चुका था। विट्गेंस्टाइन का भाषा-दर्शन हो या योरोपीय विचारकों का अस्तित्ववाद, मूलतः ये सब ‘अपसरण के दर्शन’ (फिलासफीज ऑफ रिट्रीट) हैं।’’                                      (नारंग, पृ. 29)
इस उद्धरण में स्कोल्ज बीसवीं शताब्दी की इस सूरते हाल को अपने कोण से बयान करने की कोशिश करता है। नारंग यदि इन पाश्चात्य आंदोलनों से सीधे परिचित होते तो शायद उनसे कुछ और ही परिणाम निकालते। बीसवीं शताब्दी में द्वितीय महायुद्ध के बीच होने वाली तबाही के हिंदुस्तान पर भी प्रभाव पड़े थे। नारंग को इस बात से कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो यह सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उन्होंने बैग्स्टाइन का अध्ययन किया है। यदि यह स्वयं वैग्स्टाइन का अध्ययन करने का कष्ट उठाते तो विभिन्न परिणाम निकाल सकते थे परंतु वह स्कोल्ज पर पक्की आस्था रखते हैं। और उसके परिणामों को न केवल अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी परम सत्य बना देने का प्रयत्न करते हैं। रॉबर्ट स्कोल्ज की उपरोक्त पुस्तक से नारंग ने अपनी पुस्तक के कई आरंभिक पन्ने नकल किए हैं। इसके अतिरिक्त सियोसियर और संरचनावाद पर लिखा गया सारा तथ्य इसी पुस्तक से लफ्ज ब लफ्ज अनुवाद हैं। रॉबर्ट स्कोल्ज ने इस पुस्तक में संरचनावाद की हिमायत में लिखा है। यह उनका विश्लेषण है जिसे तार्किक तरीके से नकारा भी जा सकता है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के समाजविज्ञानी, राजनीतिक या फिर आर्थिक कशमकश के नतीजे में सिद्धांतों की तोड़-फोड़ और निर्माण के बाद जो संरचनावादी मॉडल उन्होंने भाषा विशेषज्ञ सियोसियर से उधार लिया है उसकी तोड़-फोड़ भी उत्तर संरचनावाद के विमर्श के आरंभ के साथ हो जाती है। उस समय कई विचारक स्वयं को संरचनावाद का हामी कहने से कतराने लगे। संक्षेप में यह है कि यह विश्लेषण शोल्ज के दार्शनिक घराने का दृष्टिकोण है। रेडिकल मार्क्सवादी चिंतक इस सामूहिक दृष्टि की भिन्न प्रकार से व्याख्या व विश्लेषण पेश करते हैं जो उत्तर आधुनिक सिद्धांत के हवाले से मजबूत भी है और असरदार भी। प्रश्न यह है कि गोपीचंद नारंग कहां खड़े दिखाई देते हैं? ...बरतानवी समाजिक विचारक क्रिस्टोफर नौरिस लिखते हैं:
''Derrida’s professional training was as a student of philosophy (at the Ecole Normale superior in Paris where he
taught until recently), and his writings demand of the reader a considerable knowledge of the subject. Yet Derrida’s
texts are like nothing else in modern philosophy, and indeed represent a challenge to the whole tradition and self-
understanding of that discipline.''
(Norris, Christopher: Deconstruction, 3rd ed., Lodon, Routledge, 2002. Pp 18-19)

नारंग लिखते हैं:
‘‘प्रशिक्षण की दृष्टि से भी देरीदा दार्शनिक है और वह इकोल नार्मेल सुपीरियर, पेरिस में दर्शन का प्राध्यापक भी रहा है। फिर उसकी कृतियों को दर्शन के मूल बिंदुओं से अनभिज्ञ रहते हुए समझ पाना भी असंभव है। तथापि देरीदा के लेखन को दर्शन में सम्मिलित करना भी कठिन है, इसलिए कि दर्शन में देरीदा की कृतियों के समरूप कोई चीज नहीं मिलती, क्योंकि वह संपूर्ण दार्शनिक परंपरा को और उन आधारों को जिन पर दर्शन एक ज्ञानसंहिता के रूप में स्थापित है, चुनौती देता है।’’ (नारंग, पृ. 169)
क्रिस्टोफर नौरिस ने लिखा है:
''Derrida refuses to grant philosophy the kind of privileged status it has always claimed as the sovereign dispenser
of reason. Derrida confronts this pre-emptive claim on its own chosen grounds. He argues hat philosophers have
been able to impose their various systems of thought only by ignoring, suppressing, the disruptive effects of
language .his aim is always to draw out these effects by critical reading which fastens on, and ski fully unpicks, the
elements of metaphor and other figural devices at work in the texts of philosophy. Deconstruction in this, its most
rigorous form, acts as a constant reminder of the ways in which language deflects or complicates the philosopher’s
project. Above all deconstruction works to undo the idea-according to Derrida, the ruling illusion of Western
Metaphysics that reason can somehow dispense with language and achieve a knowledge ideally (unaffected by such
mere linguistic foibles).'' (Norris, Pp.18-19)

गोपीचंद नारंग की पुस्तक के इस उदाहरण पर विचार करें:
‘‘देरीदा दर्शन को एक ज्ञानसंहिता के रूप में यह निरंकुश स्थिति देने को सहमत नहीं कि मानवीय विचारणा के सकल अधिकार दर्शन के नाम सुरक्षित कर दिए जाएं। उसका दावा है कि दर्शनविद् अपने वैचारिक तंत्रों के आधिपत्य हेतु भाषा के अंतर्विरोधों का दमन एवं उनकी उपेक्षा करते रहे हैं। देरीदा अपने विरचनावादी अध्ययनों में दर्शन की इन दुर्बलताओं एवं पंगुताओं को प्रकट करता है। वह बार-बार अत्यंत कठोरता से स्मरण कराता है कि भाषा का स्वरूप ऐसा है कि वह दार्शनिक के कार्य को कठिन से कठिनतर बनाती है। यद्यपि पाश्चात्य तत्वमीमांसा में यह विचार प्रचलित रहा है कि मानवीय चिंतन किसी-न-किसी प्रकार भाषा से उन्मोचन पा सकता है और यथार्थ को व्यक्त करने की कोई विशुद्ध एवं प्रामाणिक पद्धति गढ़ सकता है।’’
(नारंग, पृ. 169-170)
नारंग साहब की यदि अब तक की रचनाओं का जायजा लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने लेखों में किसी भी दार्शनिक के विचारों पर बहस नहीं उठाई। इसका अर्थ यह है कि वह दार्शनिक के बारे में कुछ नहीं जानते, जो उनके इस उद्धहरण से स्पष्ट है:
‘‘किंतु देरीदा अकाट्य रूप से यह सिद्ध करता है कि दर्शन की यह अपेक्षा भ्रांति से अधिक हैसियत नहीं रखती और दर्शन का भाषा के शिकंजे से स्वतंत्रा होना पूर्णतया असंभव है।’’       (नारंग, पृ. 170)
यह बात इंतहाई बचकाना है कि भाषा के बिना किसी प्रकार का कोई विचार पेश किया जा सकता है, या किसी वस्तु को उसके संपूर्ण या किसी भी पहलू को बयान किया जा सकता है। इसके लिए देरीदा से किसी प्रमाणपत्रा की आवश्यकता नहीं है। विचारवान दर्शन में इतनी गुंजाइश मौजूद है कि विरचनावाद विचारवान दर्शन के विरुद्ध क्रियाशील होती है। परंतु प्रश्न यह है कि क्या विरचनावाद हीगलवादी टोटेलिटी या ऐसेंसिएलिटी के आधार पर उसको गलत सिद्ध कर सका है या उसकी सीमाओं का निर्धारण कर पाया है? नारंग पाश्चात्य उत्तर आधुनिकतावाद के झंडाबरदारों के अनुसरण में यह नारा भी बुलंद कर चुके हैं कि ‘उत्तर आधुनिकतावाद प्रत्येक प्रकार के साधारणीकरण को रद्द करता है’। रद्द क्यों और कैसे करता है? इसके बारे में नारंग के अतिरिक्त किसी भी आलोचक के पास कहने को चार वाक्य तक नहीं हैं, कारण उसका यह है कि यह साहित्य से ज्यादा दर्शन का मसला है और दर्शन के जानकारों की उर्दू में कमी रही है। उर्दू में उन लोगों को दार्शनिक मान लिया गया है जो दर्शन से अधिक रहस्यवाद के प्रचार पर कमर कसे रहे हैं।
नारंग दो-चार बातें सुनकर फतवे दे रहे हैं। उत्तर आधुनिक चिंतकों की अंधे अनुसरण में हर उस दर्शन को केवल फैशन के तौर पर नकार देना चाहते हैं जो परिप्रेक्ष्य के महत्व को स्पष्ट करता है। उनके लिए जरूरी यह है कि वो उन दार्शनिक अवधारणाओं (प्रिमिसेस) का ज्ञान प्राप्त करें और पाश्चात्य सिद्धांतों पर अपनी हैसियत को अपने परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट करें। अकादमिक प्रिमिसेस की बहस में उलझने से पहले यह जरूरी है कि नारंग को उनकी चोरी के बारे में याद ताजा कराई जाए। पर नारंग को चोरी से फुर्सत मिलती तो शायद इन अवधारणाओं को समझने का प्रयत्न करते।
एक और उद्धरण को देखते हैं। क्रिस्टोफर नौरिस लिखते हैं:
''In this sense Derrida’s writings seem more akin to literacy criticism than philosophy. They rest of the
assumption that modes of rhetorical analysis, hitherto applied manly to literary texts, are in fact indispensable
for reading any kind of discourse, philosophy included. Literature is no longer seen as a kind of poor relation to
philosophy, contenting itself with mere fictive or illusory appearances and forging any claim to philosophic dignity
and truth. This attitude has, of course, a long prehistory in western tradition. It was plato who expelled the poets
from his ideal republic, who set up reason as a guard against the false beguilements of rhetoric, and who called forth
a series of critical ‘defenses’ and ‘apologies’ which runs right through form Sir Philip Syndey To I.A. Richards and
the American new critics. The lines of defense have been variously drawn up, according to whether the critic sees
himself as contesting philosophy on its own argumentative ground, or as operation outside its reach on a different-
though equally privilege-ground ''
(Norris, P. 19)

नारंग इस उद्धरण से प्रभावित होकर क्या कमाल दिखा रहे हैं:
‘‘इस दृष्टि से देखा जाए तो देरीदा का लेखन दर्शन से अधिक साहित्य की कोटि में आता है। उसकी मूलभूत आस्था यह है कि भाषिक अथवा आलंकारिक विवेचन जो मात्रा साहित्यिक पाठ का धर्म समझा जाता है, वह वस्तुतः दार्शनिक विमर्श समेत किसी भी विमर्श के गंभीर अध्ययन हेतु आवश्यक है। देरीदा की धारणा है कि साहित्य दर्शन का दूर का संबंधी नहीं, जिसको दार्शनिक मात्रा शब्दों के काल्पनिक तोता-मैना रचने वाली संहिता के रूप में उकताहट से निरस्त करते रहे हैं, वरंच यथार्थता का सहभागी होने के नाते साहित्य उसी प्रतिष्ठा एवं गौरव का अधिकारी है, जो दर्शन हेतु विशिष्ट है। इतनी बात ज्ञात है कि प्लेटो ने साहित्यिकों, कवियों को अपने आदर्श राज्य से इसीलिए बहिष्कृत कर दिया था कि दर्शन या बौद्धिकता की तुलना में साहित्य की लाक्षणिकता सह्य न थी। सर फिलिप सिडनी से लेकर रिचडर््स और नई समीक्षा तक साहित्य की स्वतंत्रा हैसियत की रक्षा की जाती रही है।’’                                    (नारंग, पृ. 170)
नारंग ने यहां पर नौरिस के शब्द ‘अमेरिकी’ को उड़ा दिया है कि कहीं उर्दू वाले अमेरिका के नाम से नाराज न हो जाएं। उसके साथ-साथ उन्होंने विमर्श (उर्दू संस्करण में डिस्कोर्स) को अंग्रेजी में लिख दिया है, जिससे यह लगे कि नारंग स्वयं ही यह विश्लेषण पेश कर रहे हैं। जहां उन्होंने जरूरी समझा अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भी कर दिया।
इस लेखक का यह दावा है कि गोपीचंद नारंग की पुस्तक में देरीदा और उत्तर संरचनावाद पर लिखी हुई सारी सामग्री क्रिस्टोफर नौरिस की पुस्तक से हूबहू अनुवाद है। आइए एक और उद्धरण पर विचार करें। क्रिस्टोफर नौरिस लिखते हैं:
''The counter-arguments to deconstruction have therefore been situated mostly on commonsense, or ‘ordinar-
language’ ground. There is support from the philosopher Ludwig Wittgenstein (1889-1951) for the view that such
skeptical philosophies of language rest on a false epistemology, one that seeks (and inevitably fails) to discover
some logical correspondence between language and the world. Wittgenstein himself started out from such position,
but came round to believing that language had many uses and legitimating ‘grammars’, none of them reducible
to a clear-cut logic of explanatory concepts. His later philosophy repudiates the notion that meaning must entail
some one-to-one link or ‘picturing’ relationship between propositions and factual status of affairs. Languages now

conceived of as a repertoire of ‘games’ or enabling convention, as diverse in nature as the jobs they are require to do
(Wittgenstein 1953.) the nagging problems of philosophy most often resulted, Wittgenstein though, from the failure
to recognize multiplicity of language games. Philosophers looked for logical solutions, to problems which were only
created in the first place by a false conception of language, logic and truth. Skepticism, he argued, was he upshot
of deluded guest for certainty in areas of meaning and interpretation that resist any such strictly regimented logical
account.''
(Norris, Pp 127-128).

नारंग साहब की लिंग्वेस्टिक चाल देखें:
‘‘देरीदा के विरचनावाद के विरुद्ध जितनी भी बहस की गई है, वह साधारण भाषा और सामान्य सूझ-बूझ के दृष्टिकोण से की गई है। स्मरण रहे कि ऐसे लोगों से पहले लुडविग विट्गेंस्टाइन (1889-1951) कह चुका है कि भाषाविषयक संशयात्मक सिद्धांत उस मिथ्या ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टेमोलॉजी) के अंग हैं, जो भाषा एवं वस्तुओं में किसी-न-किसी प्रकार की तर्कसंगत मैत्राी उत्पन्न करना चाहती है। विट्गेंस्टाइन ने स्वयं अपनी दार्शनिक यात्रा इसी संशय से आरंभ की, किंतु बाद में वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि भाषा के नानाविध प्रयोग हैं, जिनसे कई प्रकार के व्याकरण उद्भूत होते हैं और उनमें से कोई भी व्याकरण तर्क के स्पष्ट, पारदर्श सिद्धांतों के धरातल पर नहीं लाया जा सकता। विट्गेंस्टाइन का दर्शन इस तथ्य का प्रत्याख्यान है कि भाषा में शब्द एवं वस्तु में एक और एक का संबंध है। वह भाषा की संकल्पना एक ऐसे तंत्रा के रूप में करता है, जिसमें विभिन्न उद्देश्यों के लिए भांति-भांति के खेल खेले जाते हैं। विट्गेंस्टाइन का कहना है कि दर्शन की समस्या यह है कि भाषा की बहुलार्थकता को वश में नहीं किया जा सकता। दार्शनिकों की समस्याओं के तार्किक निराकरण की आवश्यकता होती है और संशय निश्चितता के अन्वेषण का परिणाम है, क्योंकि अर्थ का तार्किक समाधान संभव नहीं। गरज विट्गेंस्टाइन के अनुसार वे समस्त संशयवादी दर्शन, जो भाषा, तर्क एवं यथार्थ के मध्य नानाविध संगतियों को नहीं देख सकते, विस्मित होने पर विवश हैं।’’                            (नारंग, पृ. 171)
इस पैराग्राफ के बाद क्रिस्टोफर नौरिस, वेग्स्टाइन के फलसफे की रोशनी में विरचना के विरुद्ध बहस प्रारंभ करते हैं। क्रिस्टोफर नौरिस ने यह भी स्पष्ट किया है कि वटकिस्टाइन दर्शन के तौर पर सियोसियर और उत्तर सियोसियरी भाषाशास्त्राीय सिद्धांत में किन कमियों को देखता है। नारंग वटकिंस्टाइन की सियोसियर पर दार्शनिक आलोचना को पेश करना उचित नहीं समझते, क्योंकि इस तरह नारंग साहब का संरचनावाद का प्रचार प्रभावित हो जाता। इसीलिए नारंग को वेटकिंस्टाइन की आलोचना पसंद नहीं आई। उनका उद्देश्य तो केवल इस पैराग्राफ की चोरी था, जो उनके निकट विरचना की सत्यता सिद्ध करने के लिए आवश्यक था। आश्चर्य की बात यह है कि नारंग का कोई भी चुराया हुआ उद्धरण कॉमाओं में नहीं है। परंतु उपरोक्त उद्धरण के बाद वाले उद्धरण को वह कॉमाओं में लिखते हैं, हालांकि यह उद्धरण भी उन्होंने नौरिस की पुस्तक ही से उठाया है। नारंग वेटकिंस्टाइन का हवाला देते हुए लिखते हैं: ‘‘यदि तुम हर चीज पर शक करने लगोगे तो फिर तुम किसी भी चीज पर शक न कर सकोगे। हर शक की तह में विश्वास होता है’’ (नारंग, पृ..) इसका अर्थ यह हुआ कि नारंग को इस बात की पूरी समझ है कि किस प्रकार उन्होंने पाठक की आंखों में धूल झोंकी है। इसीलिए एक ही पृष्ठ पर लिखे गए उद्धरणों में से केवल दो वाक्यों को ही कॉमाओं में दिखाते हैं जबकि अधिकतर भाग को वह अपनी विश्लेषणात्मक दृष्टि का चमत्कार सिद्ध कर रहे हैं।
नारंग के इस प्रकार चोरी करने के बाद इस विचार का मस्तिष्क में उभरना जायज है कि यदि वह स्वयं उत्तर आधुनिक सिद्धांत को नहीं समझ सके तो विद्यार्थियों को कैसे समझा सकते हैं? और अगर वह स्वयं इस सिद्धांत को समझ चुके होते तो लफ्ज ब लफ्ज चोरी की आवश्यकता ही न होती।
नारंग दार्शनिक विमर्शों में अपनी अगंभीर प्रकृति के कारण प्राच्य ‘सच्चाई’ के मानदंड के प्रचार के अतिरिक्त हर प्रकार की आलोचनात्मक समझ से खाली दिखाई देते हैं, इसी कारणवश वह चोरी करने पर बाध्य हुए।
(‘गोपीचंद नारंग की सच्चाई, और परिप्रेक्ष्य, चोरी की चपेट में’ शीर्षक यह लेख हेटर शाइम, जर्मनी से प्रकाशित होनेवाली उर्दू पत्रिका जदीद अदब: संपादक हैदर कुरैशी, अंक 11, जुलाई-दिसंबर, 2008 में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे शबखून  इलाहाबाद ने अपने अंक 5, में छापा। यह अनुवाद वहीं से साभार लिया गया है।)
`साख्तियात, पस-सख्तियात और मशरिकी शेरियात` को पहली मर्तबा 1992 में दिल्ली के एक प्रकाशक ने छापा। उसके बाद यह लाहौर से छपी। इसका तीसरा प्रकाशक मानव संसाधन मंत्रालय का विभाग कौमी काउंसिल बराए फरोगे उर्दू है। इस लेख के उर्दू के संदर्भ इसी पुस्तक से हैं। इस किताब के लिए 1995 में केंद्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। हिंदी में इस का अनुवाद संरचनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्रा नाम से अकादेमी ने ही सन् 2000 में प्रकाशित किया। इसके अनुवादक हैं देवेश। लेख में अंग्रेजी के उद्धरित हिस्सों के अनुवाद इसी संस्करण से लिए गए हैं।

Tuesday, August 14, 2012

खूनी खाप पंचायतें, अब भेड़ की खाल में...



रविवार 15 जुलाई 2012 के हिंदी अखबारों के मुखपृष्ठ खापमय हो गए थे। उस दिन मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली इलाके के अपने गांव हसनपुर लुहारी में था और मेरे हाथों में `हिन्दुस्तान` अखबार था। अखबार की लीड जींद जिले के बीबीपुर गांव में हुई महापंचायत में कन्या भूण हत्या के खिलाफ लिया गया फैसला था तो बॉटम स्टोरी भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी नरेश टिकैत (दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत के उत्तराधिकारी) का इंटरव्यू था। भयावह यह था कि हिन्दुस्तान जैसे अखबार ने बीबीपुर की कथित महापंचायत का सिर्फ महिमांडन किया था और उसे जरा भी क्रिटिकल ढंग से देखने की कोशिश नहीं की थी। दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर (हरियाणा) आदि सभी अखबारों का सुर एक जैसा था। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण में `खाप की नई पहल` और `कोख की बेटियों को खाप का आशीर्वाद` शीर्षक दिए गए थे। दलितों-स्त्रियों के उत्पीड़न और प्रेमी जोड़ों की हत्याओं जैसे असंवैधानिक फरमानों के लिए कुख्यात खाप पंचायतों के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी। यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि महापंचायत का सोचा-सामझा मकसद दुनिया की आंखों पर परदा डालने, अपना चेहरा चमकाने और इससे भी बढ़कर असंवैधानिक कार्यवाहियों/कार्रवाइयों के लिए लेजिटिमेसी हासिल करने की बड़ी कोशिश थी, जिसमें मीडिया सहयोगी बन गया था। बेटियों के पिता की संपत्ति में हिस्से के अधिकार के खिलाफ फरमान जारी करने वालीं, शादीशुदा जोड़ों को भाई-बहन करार दे देने वालीं, स्त्रियों के बुनियादी मानवीय अधिकारों की जबरदस्त मुखालफत करने वालीं, छेड़खानी और बलात्कार के आरोपी दबंगों के समर्थन में बार-बार खड़ी होते रहने वालीं खाप पंचायतें मजे से बगुला भगत की भूमिका में आ गईं। कोई पूछने वाला नहीं था कि पितृसत्ता की मानसिकता को चुनौती दिए बिना किस तरह कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाया जा सकता है। हास्यास्पद यह भी था कि खुद बीबीपुर गांव का रेकॉर्ड लिंगानुपात के लिहाज से बद से बदतर हुआ है। फिर भी हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अगले ही दिन खाप महापंचायत की तारीफों के पुल बांध दिए और बीबीपुर गांव के विकास के लिए एक करोड़ रुपये देने का ऐलान कर दिया। हुड्डा ने खाप पंचायतों का सामाजिक जन आंदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान भी किया। 
जाहिर है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री का खाप प्रेम नया नहीं था और वे खापों के `आंदोलनों` के स्वरूप से नावाकिफ भी नहीं थे। हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में मुख्यमंत्री की जाति के किसानों ने दलितों के घर फूंक दिए थे और एक विकलांग दलित लड़की को जिंदा जला दिया था तो खाप पंचायतें खुलकर आरोपियों के पक्ष में जा खड़ी हुई थीं। ऐसे नाजुक मौके पर भी मुख्यमंत्री इन बर्बर, असंवैधानिक स्वयंभू खाप पंचायतों की तुलना एनजीओज़ से कर उनकी पीठ थपथपा चुके थे। मनोज-बबली हत्याकांड व ऑनर किलंग की दूसरी सनसनीखेज वारदातों के बाद केंद्र सरकार ने नया सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की तो भी हुड्डा ने केंद्र सरकार को कहा कि ऑनर किलंग की वारदातें मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है जबकि इन्हें व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए। 
दिलचस्प यह है कि उत्तर भारत में जाटों के अलावा भी लगभग सभी ताकतवर जातियां स्त्रियों और दलितों के साथ एक जैसा ही सलूक करती रही हैं लेकिन हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप-पंचायतों की मुहिम की धुरी सामाजिक-राजनैतिक रूप से बेहद ताकतवर हैसियत रखने वाले जाट ही रहते हैं। हरियाणा की सत्ता संभालने के बाद से ही हुड्डा की कोशिश जाटों में देवीलाल-चौटाला से ज्यादा स्वीकार्यता हासिल करने की रही है। खापों की असंवैधानिक कारगुजारियों पर चुप्पी और उनका महिमामंडन ऐसी ही कोशिशों का हिस्सा है। जिस वक्त हुड्डा खाप पंचायतों से जनांदोलनों के लिए आगे आने का आह्वान कर रहे थे, तब भी हिसार जिले के भगाना गांव के दलित ऐसी ही एक पंचायत के फरमान के बाद गांव से पलायन कर हिसार और दिल्ली में इंसाफ के लिए डेरा डाले हुए थे। बताया जाता है कि बतौर इंसाफ उत्पीड़ितों पर ही संगीन धाराओं में मुकदमे लाद दिए गए हैं। हिसार के दौलतपुर गांव में पानी का बर्तन छूने पर दलित व्यक्ति के हाथ काट देने की घटना पुरानी नहीं है। दलित उत्पीड़न की अनगिन वारदातें रोज होती हैं और गोहाना, मिर्चपुर व कुंजपुरा जैसी दलित उत्पीड़न की चर्चित वारदातों की तरह हर बार खाप पंचायतें आरोपियों का पक्ष लेते हुए दलितों को भाईचारा कायम करने की चेतावनी देती हैं। भाईचारे का सीधा मतलब होता है कि दलित जातियां उत्पीड़न के खिलाफ मुंह न खोलें।
जाहिर है कि ऐसे मसलों पर हरियाणा में विपक्ष यानि ओमप्रकाश चौटाला भी चुप्पी ही साधे रहे। वैसे भी जाट नेताओं और इन खाप-पंचायतों का रिश्ता दिलचस्प है। खाप-पंचायतों के मुखिया (यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ताकतवर किसान नेता व बालियान खाप के मुखिया दिवंगत महेंद्र सिहं टिकैत भी) कभी सीधे इलेक्शन जीतने-जिताने की स्थिति में नहीं होते हैं। मानो एक कबीला अपने कुछ लोगों को सीधे सरकार में रहने की भूमिका देता हो और कुछ को सरकार से बाहर रहकर ही माहौल बनाए रखने और कबीले की सामाजिक सत्ता बरकरार रखने की भूमिका देता हो। 
जींद की बीबीपुर की महापंचायत के महिमामंडन के बाद खाप-पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की पुरानी मांग जोर-शोर से उठाया जाने लगी है। मीडिया और सरकार खापों को नई पहल करने का तमगा दे रही हों तो ऐसा होना स्वाभाविक भी था। खापों के लिए बेहद उर्वर बागपत-मुज़फ़्फ़रनगर, शामली जिलों में तो इन पंचायतों का सिलसिला सा शुरू हो गया। आसरा और बागपत की पंचायतों के अलावा दूधाहेडी, मोघापुर, जसोई, हैबतपुर आदि कई गांवों में देखते ही देखते पंचायतें आयोजित कर दी गईं और असली एजेंडा भी जाहिर कर दिया गया। लड़कियों के जींस न पहनने, लड़कियों के मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करने व 40 साल से कम उम्र की स्त्रियों को अकले घर से न निकलने देने आदि फरमान धड़ल्ले से दोहरा दिए गए। कहा गया कि अपनी परंपराओं की तरह `अपनी` स्त्रियों और बेटियों की सुरक्षा करना हमारा अधिकार है। प्रेम विवाहों पर पाबंदी, गौत्र व गांव में शादी न होने देने जैसे पुराने सुर भी जोर-शोर से बजने लगे। नरेश टिकैत ने साफ तौर पर कहा कि बेटा-बेटी समान हैं पर पिता की संपत्ति में बेटियों को हिस्सा नहीं दिया जा सकता है। जाट आरक्षण संघर्ष समति के अध्यक्ष यशपाल मलिक कह रहे हैं कि रमजान के बाद देशव्यापी आंदोलन चलाया जाएगा और खाप पंचायतों के पक्ष में कानूनी अधिकार हासिल किए जाएंगे। ऑनर किलंग की वारदातों में खाप पंचायतों की संलिप्तता और केंद्र सरकार के नए सख्त कानून बनाने की प्रक्रिया के मद्देनजर ऐसी मांगों के महत्व को समझना कठिन नहीं है। अपने गृह क्षेत्र बागपत में हुई इन पंचायतों को लेकर केंद्रीय मंत्री अजित सिंह और उनके बेटे जयंत के स्वर भी हिमायत भरे ही रहे। दिलचस्प है कि अजित अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने अमेरिका से भारत आए थे और उनके बेटे जयंत भी सियासत में आने से पहले अपने अंतरजातीय विवाह का हवाला देते हुए इस तरह के विवाहों को जातिवाद खत्म करने के लिए जरूरी बताते थे।   
बीबीपुर की महापंचायत में महिलाओं की मंच पर भागीदारी भी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाई गई। पंचायतों में स्त्रियों की गैरमौजूदगी को लेकर सवालों के घेरे में रहती आई खापों ने पहले ही मंचों पर स्त्रियों की प्रतीकात्मक नुमाइंदगी शुरू कर दी थी। अपने ढांचे और फैसलों में धुर स्त्री विरोधी इन खाप-पंचायतों के मंचों पर कुछ स्त्रियों का उनकी हां में हां मिलाना किसी को हैरानी भरा लग सकता है लेकिन एक ताकतवर समूह में शामिल रहकर (उसके भीतर उत्पीड़न झेलते हुए भी) प्रिविलेज होने के फल लगातार मिलते हों, तो ऐसा स्वाभाविक है। हालांकि यह विडंबना ही है कि जिस तरह दलित विरोध इस तरह की खाप-पंचायतों को `व्यापक स्वीकृति` प्रदान करता है, उसी तरह इस ढांचे की बड़ी ताकत औरतों पर पुरुषों के वर्चस्व के फरमान ही हैं। यह एक ऐसा पहलू है जो खाप-पंचायतों के हिंन्दूवादी संगठनों से गहरे गठजोड़ (दुलीना में पांच दलितों की जलाकर हत्या से लेकर हिंदू विवाह अधिनियम में बदलाव की मांग तक ) के बावजूद मुसलमानों को भी (यहां तक कि दलितों को भी) आकर्षित करता है। बेवजह नहीं कि मुसलमान गांवों में भी ऐसी पंचायतें हो रही हैं और उलेमा भी जाट नेताओं के सुर में सुर मिला रहे हैं। यह एक ऐसी `सर्वानुमति` है जो खापों के जाट केंद्रित होते हुए भी उनके 36 बिरादरी के जुमले को किसी हद तक सही साबित कर देती है। 
इस बीच सबसे बड़ी विडंबना प्रगतिशील इंसाफपसंद ताकतों के असमंजस की है। जाहिर है कि ऐसी ताकतें लगातार वलनरेबल भी हुई हैं। बीबीपुर महापंचायत के निहितार्थों को यह सोचकर जोर-शोर से उजागर न करना कि उन पर कन्या भ्रूण हत्या जैसे मसले पर भी नकारात्मक नजरिए के इस्तेमाल का आरोप लग सकता है, नासमझी ही कही जा सकती है। खाप-पंचायतों के खिलाफ बेहद खतरा उठाकर मुखर रहे साथी कई बार खाप-पंचायतों को सीधे असंवैधानिक कहने के बजाय उनकी कुछ `अच्छाइयों` के साथ उनकी गलतियां गिनाते हुए बीच का रास्ता निकालने या उनका हृदय परिवर्तन कर देने की उम्मीद बांधने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह सब किसी कबीलाई जहालत, नासमझी या पिछड़ेपन का नतीजा नहीं है बल्कि सोची-समझी फलदायी पॉवर प्रेक्टिस है।
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(समयांतर के अगस्त अंक में `भेड़ की खाल में` शीर्षक से प्रकाशित`) कार्टून `द हिंदू` से साभार

Monday, August 13, 2012

सीपीएम से अलबीना (Albeena Shakil) के निष्कासन के विरोध में बयान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीआई (एम) में रहना है तो खामोश रहो (केरल में लोकप्रिय नेता अच्युतानंद को प्रकाश करात यही तो कह चुके हैं)। सीपीआईएम एंटरप्राइजेज के डायरेक्टरों को करने दो, जो वे करते हैं, वर्ना आपको इस्तीफा देने का हक भी नहीं है। इस्तीफा दे चुके प्रसेनजीत बोस (पार्टी की रिसर्च यूनिट के कन्वीनर) को इस्तीफा नाकुबूल कर निष्कासित करने की हास्यास्पद सामंती कारगुजारी कर चुके पार्टी हुक्मरानों से यह शिकायत बेमानी है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठित-जुझारू नेत्री अलबीना के खिलाफ कार्रवाई करते हुए पार्टी के संविधान का अनुपालन करने की औपचारिकता तक पूरी नहीं की। अलबीना के निष्कासन के खिलाफ यह बयान गौरतलब है-


We the undersigned were expelled from the primary membership of the SFI in a SFI Delhi State Committee Meeting held on 10.07.2012 for taking a dissenting political position against the CPI (M)'s decision to support Pranab Mukherjee in the Presidential Elections. We have learnt that Comrade Albeena Shakil, who was anelected member of the CPI (M) Delhi State Committee has been expelled from the Primary Membership of theCPI (M) in a CPI (M) Delhi State Committee Meeting held on 11.08.2012.We are issuing a statement against this undemocratic expulsion.
P.S. The Show-Cause letter dated 25.07.2012 issued to Comrade Albeena Shakil by the Secretary of CPI (M) Delhi State Committee and her reply to the letter dated 31.07.2012 are attached with the mail.
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Against Kangaroo Courts to Silence Political Dissent 
12.08.2012

We the undersigned have learnt that Comrade Albeena Shakil has been expelled from the primary membership of the CPI (M) on 11.08.2012 for “indulging in anti party activities”. The decision was made in a Delhi State Committee Meeting of the CPI (M) with 17 members voting for the expulsionand 4 opposing it.Prior to this decision another CPI (M) Delhi State Committee meeting held on 20.07.2012 had decided to remove Comrade Albeena from all elected positions in the CPI (M) and Janwadi Mahila Samiti (AIDWA). This decision was in brazen violation of the norms laid down in the CPI (M) Constitution, which categorically says that all decisions regarding disciplinary action (except summary expulsion) have to be taken in the presence of the individual concerned, so that the individual gets an opportunity to offer defense in accordance with the principles of natural justice. TheDelhi CPI (M) leadership flouted the CPI (M) Constitution and initiated disciplinary action against Comrade Albeena.One Delhi State Committee Member of the CPI (M), who has also been a former secretary of the SFI Unit in JNU, had resigned from the Party after the State Committee meeting of 20.07.2012 protesting against the unconstitutional action and unjustifiable persecution. Comrade Albeena was called for the meeting on 11.08.2012 in order to sanctify the earlier unconstitutional decisions and make her listen to further malice.No concrete evidence was provided for the so-called “anti-party activities” in both these meetings except Comrade Albeena’s participation in a National Convention on Campus Democracy and Lyngdoh Recommendations organized by the JNU Students’ Union held on 21.07.2012 and an SFI-JNU Activist Meeting on the JNU student movement held on 1.08.2012. On both these occasions, no act/comment against the CPI (M) was made by her. Comrade Albeena had signed an appeal addressed to the SFI all-India President to resolve the differences with SFI-JNU in a political and democratic manner.
In the State Committee meeting of 11.08.2012 Comrade Albeena tried to persuade the Delhi State Committee members to adopt a non-confrontationist approach towards the SFI-JNU and open political dialogue with them in order to resolve the differences.The fact that this has been construed as “anti-party activities” by the Delhi CPI (M) leadership exposes its undemocratic and authoritarian mindset.
Comrade Albeena has been elected to the JNU Students’ Union 5 times since 1997, first as a councilor from the School of Languages, then as JNUSU Joint Secretary; twice as the JNUSU VicePresident and finally the JNUSU President in 2001. She was in the forefront of the struggle against the communal forces in JNU. She had also played an important role in the struggle for the formation of the Gender Sensitization Committee against Sexual Harassment in JNU. As the JNUSU President in 2001-02, Comrade Albeena provided leadership to the struggle against the imposition of the communal Xth Plan proposals by the BJP-led NDA regime in JNU. She went on to become the DelhiState Secretary and All-India Joint Secretary of the SFI in 2005. After completing her Ph.D in English literature from JNU, Comrade Albeena has been working as a whole timer of the CPI (M) in Delhi, with responsibilities in the Janwadi Mahila Samiti. She has been
an elected member of the CPI (M) Delhi State Committee since 2007 and the AIDWA Central Executive Committee since 2010. Comrade Albeena’s work in the CPI (M) and JMS included work among poor home based women workers in Delhi, especially in the Muslim dominated areas of Old Delhi and Okhla.
The disciplinary action against Comrade Albeena has to be seen in the aftermath of the draconian and vindictive action against the 4 of us and the “dissolution” of the entire SFI Unitin JNU for a taking dissenting political position vis-à-vis CPI (M)’s decision to support Pranab Mukherjee in the Presidential polls.
The desperation of the CPI (M) leadership seems to have only increased after TMC’s decision to support Mr. Mukherjee rendered the so-called “tactical masterstroke” into a laughing stock. All those who have had any association with the SFI in JNU in the past are being threatened and intimidated by the CPI (M) leadership to fall in line and contribute to their disruptive and anti-democratic agenda. The CPI (M) leadership’s paranoia has reached such proportions that all normsof party organization functioning are being thrown to the dustbin to target “suspects” and silence those who have a different opinion. In Comrade Albeena’s case, the Party leadership’s actions further betray a crass patriarchal attitude where she has been victimized for the political actions of her spouse.We appeal to all progressive and democratic sections to condemn the unjust expulsion of Comrade Albeena from the CPI (M) and firmly combat the self-destructive trends within the Left movement, epitomized by the CPI (M) leadership.

Sd/
ROSHAN KISHORE
P K ANAND
ZICO DASGUPTA
V LENIN KUMAR