Friday, December 4, 2015

कूलर साहब का इंतज़ार : नदीम एफ़. पराचा

अहमद परवेज़ की पेंटिंग
राची में हाल ही में तामीर हुए क्लिफ्टन फ़्लाइ-ओवर का अच्छा-ख़ासा हिस्सा सूफ़ी संत अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी की मज़ार से होकर गुज़रता है. कुछ दो महीने पहले उस पर ड्राइव करते हुए मुझे लगा कि मैंने एक मलंग को देखा है जिसे मैं कभी जानता था.
फ़्लाइ-ओवर जहाँ ख़त्म होता है उसके दाहिनी तरफ बने फुटपाथ पर वह पड़ा था. करीब से देख सकूँ इसलिए मैंने गाड़ी धीमी की और वाकई वही था हालाँकि अब वह सत्तर पार की उम्र में था. मैंने उसे तेईस सालों से नहीं देखा था मगर मुझे उसकी शक्ल अच्छी तरह याद थी और खासकर उसका नाम: खस्सू.
मैंने गाड़ी फुटपाथ के करीब ली जहाँ वह बड़े आराम से से सोया हुआ था. गाड़ी का शीशा नीचे कर मैं चिल्लाया, ‘खस्सू!खस्सू!’
मगर खस्सू जवाब ही नहीं दे. मैंने अपनी गाड़ी फुटपाथ के किनारे खड़ी करने की कोशिश की ताकि नीचे उतर सकूँ, मगर गाड़ियों का एक रेला मेरी गाड़ी के पीछे जमा होना शुरू हो गया था, और उनके ड्राइवर इस कदर दीवानावार हॉर्न बजा रहे थे जैसे कि उनकी ज़िंदगियाँ उस पर टिकी हुई हों.
मैंने सहज बोध से गाड़ी बाएँ लेकर रास्ते के बीच में ली और आगे बढ़ा. करीब हफ़्ते भर बाद मैं खस्सू को ढूँढने फिर गया मगर वह कहीं नहीं मिला.
लगभग 1995 तक अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार के बिलकुल पीछे कुछ अपार्टमेंट्स की कतार हुआ करती थी. ये अपार्टमेन्ट साठ के दशक में बने थे और वहां पार्किंग की काफी बड़ी जगह थी. मैं और मेरे कुछ दोस्त वहाँ अक्सर क्रिकेट खेलने जाया करते. ये अस्सी और नब्बे के दशक के शुरूआती सालों के दरमियान की बात है.
1995 के बाद उन अपार्टमेंट्स को तोड़ने की शुरुआत हुई और आज उस प्लाट पर रियल इस्टेट टाइकून मलिक रियाज़ द्वारा एक विशाल इमारत बनाई जा रही है.
अस्सी के दशक के आखिरी सालों में मैं अपने दोस्तों के साथ शाह ग़ाज़ी मज़ार पर (ज़्यादातर कुतुहलवश) अक्सर जाया करता, खासकर जुमेरात की शामों को जब वहाँ कव्व्वाली की महफ़िलें लगतीं. पता नहीं वे महफ़िलें अब भी लगती हैं या नहीं मगर नब्बे के दशक के शुरूआती सालों तक हर जुमेरात को दस बजे से लेकर आधी रात तक कव्वाली की महफ़िलें बिलानागा लगा करतीं.
खस्सू से से मेरी पहली मुलाक़ात यहीं हुई थी. मेरा ख़याल है ये 1987 की बात है. हमने उम्र के महज बीस साल पूरे किए थे. खस्सू वहाँ था, हमेशा हरे रंग के लहराते कुर्ते में, बहुरंगी फ़कीराना टोपी, सफ़ेद होती छोटी दाढ़ी और कलाइयों पर बहुत से कड़े पहने.
अगर वह कव्वाली में नहीं है (जहाँ वह आम तौर पर होता) तो एक लफ्ज़ न बोलता. जब गाना-बजाना अपने चक्करदार उरूज पर पहुँचता तो खस्सू नंगे पैर कूद कर एक दिलचस्प अराजक नृत्य (धमाल) शुरू करता; लगातार ‘हक़, हक़, हक़ अल्लाह!’ चिल्लाता हुआ. कव्वाली के बाद फ़ौरन वह अपनी हमेशा की ग़मगीन अवस्था में लौट जाता.
एक दिन मेरे एक दोस्त ने एक और मलंग से पूछा कि खस्सू की क्या दास्ताँ है. उसने हमें बताया कि खस्सू को उसके बचपन में मज़ार के फाटक पर छोड़ दिया गया था (जो पचास के दशक का आखिरी दौर रहा होगा). तब से वह यहीं रह रहा है.
उस मलंग ने हमें बताया कि खस्सू हमेशा से इस तरह खामोश (या ग़मगीन) नहीं था. और फिर एक शानदार कहानी सामने आई. उसने कहा, ‘खस्सू इंतज़ार कर रहा है.’
किसका इंतज़ार?’कूलर साहब का....’ उसने जवाब दिया. वह दरअसल कहना चाहता था कलर साहब.
कूलर साहब कौन थे? वह मलंग तुरंत उर्दू छोड़ पंजाबी पर आ गया: ‘कूलर साहब (मज़ार के मलंगों के) अज़ीज़ दोस्त थे. खासकर के खस्सू के. खस्सू अब भी उनका मुन्तज़िर है.
कूलर साहब गए कहाँ? “ख़ुदा के पास,’ मलंग ने हमें बताया.
फिर खस्सू क्यों अब भी उनका मुन्तज़िर है? कूलर साहब ने उससे कहा था कि के वह उस ड्राइंग को पूरा करने लौटेंगे जो वह खस्सू के लिए बना रहे थे,’ मलंग ने समझाया. ‘मगर वह कभी नहीं आए. हमें पता चला कि उनका इंतकाल हो गया. मगर खस्सू ने कभी इस बात पर यकीन नहीं किया. वह अब भी उनका इंतज़ार कर रहा है.
अगले कुछ महीनों में हमें मालूम हुआ कि कूलर साहब कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान के अग्रणी मुसव्विरों में से एक अहमद परवेज़ थे. परवेज़ का 1979 में इंतकाल हो गया था.
रावलपिंडी में पैदा हुए परवेज़ ने चित्रकार के तौर पर अपने करियर की शुरुआत पंजाब विश्वविद्यालय से की थी. चूंकि वे एक बेचैन रूह के मालिक थे, वे जल्द ही 1955 में लन्दन चले गए.
साठ के दशक के आखिरी दौर में वे पाकिस्तान लौटे और कराची में आ बसे. सत्तर के दशक में मुल्क के प्रमुख कलाकारों में उनका शुमार होने लगा और कराची शहर के उस वक़्त फलते-फूलते कला पटल पर उनका गहरा प्रभाव था.
अपने प्रशंसकों से घिरे होने के बावजूद बेचैन और बेक़रार बने रहे, कभी संतुष्ट न होने वाले.
उनकी जीवन शैली और भी अनियमित होने लगी. यूके, यूएस और पाकिस्तान के कला समीक्षकों द्वारा जीनियस कहे जाने को लेकर और अपनी कृतियों के लिए बड़ी आसानी से खरीदार पाने को लेकर बेपरवाह परवेज़ के बारे में उनके एक समकालीन ने टिप्पणी की कि वे पैसे के साथ ऐसा बर्ताव करते थे ‘जैसे उससे उन्हें नफरत हो.’
कला समीक्षक सलवत अली ने (डॉन अखबार में) परवेज़ के प्रोफाइल में लिखा कि ‘उपद्रव और बातचीत में बेहद उत्तेजित हो जाना परवेज़ की प्रवृत्ति थी.’ ग्लोबल पोस्ट की उप-सम्पादक और कला समीक्षक मरिया करीमजी अपने पाठकों को बताती हैं कि ‘1970 के दशक में मुल्क के माने हुए कलाकारों में से एक अहमद परवेज़ अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार में नियमित रूप से आते थे और उन्हें वहां हाथों में चिलम लिए अक्सर देखा जा सकता था.’
कला समीक्षक और परवेज़ के समकालीन बताते हैं कि उन्होंने जितना पैसा कमाया वह सब शराब पर खर्च हो जाता था. जो लोग उनकी सोहबत में आ रहे थे, उनसे उकताकर वे कराची की विभिन्न सूफ़ी मज़ारों पर जाने लगे. कराची की अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार पर वे नियमित रूप से आने लगे.
कला समीक्षक ज़ुबैदा आग़ा अहमद परवेज़ पर केन्द्रित एक आलेख में कहती हैं कि जैसे-जैसे उनकी शोहरत बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनकी जीवन शैली और भी अनियमित और ‘अस्वास्थ्यकर’ होती गई.
1970 के दशक के अंत तक वे लगभग स्थायी रूप से अब्दुल्ला शाह ग़ाज़ी मज़ार के मैदानों पर रहने लगे. उसी दौरान खस्सू के साथ उनका याराना हुआ होगा.
लाहौरवासी कलाकार मक़बूल अहमद ने, जो 1970 के दशक के आखिरी सालों में लाहौर कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स के छात्र थे, मुझे बताया कि कैसे वे अपने आदर्श अहमद परवेज़ से मिलने कराची आए मगर जो दिखाई दिया उससे भौंचक्का रह गए. ‘ये 1978 की बात है. परवेज़ ख़स्ताहाल थे. न उन्होंने मेरी तारीफ़ तस्लीम की और न मौजूदगी. वे बेहद परेशान थे, मगर किसी की समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्यों था.’
मक़बूल ने बताया कि परवेज़ लाखों रुपये कमा सकते थे: ‘उन्होंने थोड़ा पैसा कमाया भी मगर ऐसा लगता था कि उनकी उसमें दिलचस्पी नहीं थी. वे ऐसा बर्ताव करते जैसे वे उन लोगों को अपनी आत्मा बेच रहे हों जिन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि उनकी कला के मानी क्या हैं.’ मक़बूल ने फिर कयास लगाया, ‘शायद इसी अपराध बोध ने उन्हें बेघर मलंगों के हाथों में पहुँचा दिया?’
सरकार द्वारा प्रतिष्ठित प्राइड ऑफ़ परफॉरमेंस अवार्ड से नवाजे जाने पर भी परवेज़ की परीशां जीवन-शैली जारी रही. और फिर वह हो गया. और किसी को ताज्जुब नहीं हुआ.
1979 में वे अचानक गिरे और होटल के कमरे में मृत पाए गए. वह होटल कराची में आई.आई. चुन्द्रिगर रोड के करीब वाला बॉम्बे होटल था जो अब बंद हो चुका है.
अहमद परवेज़
परवेज़ द्वारा खुद अपने पर थोपे गए एकाकीपन और बर्बाद कर देने वाली जीवन शैली पर रंज करते हुए एक कला समीक्षक ने डॉन अखबार के लिए लेख में यह जोड़ा कि ‘अहमद परवेज़ में अभी बीस और सालों की प्रतिभा शेष थी. मगर शायद इस प्रतिभा ने ही उनकी तकदीर का फैसला इस ट्रेजिक अंदाज़ में कर दिया.’
मैं अब इस बात से वाकिफ़ हूँ कि मज़ार पर उनका दोस्त खस्सू अब भी ज़िन्दा है. हालाँकि जब मैंने उसे आखिरी बार देखा तब वह सो रहा था, मगर ऐसा लगा कि वह अब भी कूलर साहब का इंतज़ार कर रहा था. और उस ड्राइंग का जिसका वादा उससे 36 साल पहले किया गया था.

मशहू पत्रकार नदीम एफ. पचा का यह पीकूलर साहब का इंतज़ार भारत भूषण तिवारी ने अनुवाद कर `एक ज़िद्दी धुन` के लिए भेजा है।

Monday, October 19, 2015

नफ़रत की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है : लाल्टू






देश भर में तकरीबन पचीस साहित्यकारों ने अपने अर्जित पुरस्कार लौटाते हुए मौजूदा हालात पर अपनी चिंता दिखलाई है। जब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाया तो यह चर्चा शुरू हुई कि इसका क्या मतलब है। क्या एक लेखक महज सुर्खियों में रहने के लिए ऐसा कर रहा है। और दीगर पेशों की तरह अदब की दुनिया में भी तरह-तरह की स्पर्धा और ईर्ष्या हैं। इसलिए हर तरह के कयास सामने आ रहे थे। उस वक्त भी ऐसा लगता था कि अगर देश के सभी रचनाकार सामूहिक रूप से कोई वक्तव्य दें तो उसका कोई मतलब बन सकता है, पर अकेले एक लेखक के ऐसा करने का कोई खास तात्पर्य नहीं है। अब जब इतने लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं, यह चर्चा तो रुकी नहीं है कि सचमुच ऐसे विरोध से कुछ निकला है या नहीं, पर साहित्यकारों को अपने मकसद में इतनी कामयाबी तो मिली है कि केंद्रीय संस्कृति मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी बौखलाहट दिखला गए। तो क्या ये अदीब बस इतना भर चाहते थे या इसके पीछे कोई और भी बात है।

आम तौर से कई अच्छे रचनाकार सीधे-सीधे ऐसा कोई कदम लेने से कतराते हैं जिसमें सियासत की बू आती हो। खास तौर पर साहित्य अकादमी जैसी संस्था को जो स्वायत्तता मिली हुई है, उसे बनाए रखना और राजनीति से उसे दूर रखना ज़रूरी है। पर सियासत की जैसी समझ अदब की दुनिया के लोगों को होती है, वैसी आम लोगों में नहीं होती। सियासत में उतार-चढ़ाव से इंसानी रिश्तों में कैसे फेरबदल आते हैं, इसकी समझ किसी भी अच्छी साहित्यिक कृति को पढ़ने से मिल सकती है। यहाँ तक कि प्राचीन महाकाव्यों में भी यही खासीयत होती थी कि उनमें समकालीन सियासी दाँव-पेंच के बीच पिसते इंसानियत की तस्वीर होती थी। महाभारत को तो इसका आदर्श माना जा सकता है। इसलिए जब इतने सारे अदीब एक साथ ऐसा कदम ले रहे हैं तो वह महज सुर्खियों में रहने के लिए उठाया गया कदम नहीं है। जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइट की उपाधि वापस कर दी थी तो वह एक ऐतिहासिक कदम था। कुछ ऐसा ही आज के साहित्यकार कर रहे हैं। कोई कह सकता है कि रवींद्र तो जालियाँवाला बाग हत्याकंड के विरोध में ऐसा कर रहे थे। क्या ऐसा कुछ हुआ है जिसे उस हत्याकांड के बराबर माना जा सकता है? यह वाजिब सवाल है और इसका जवाब यह है कि हाँ, आज ऐसा ही एक ऐतिहासिक समय है। मुजफ्फरनगर से लेकर दादरी तक हमारे सामने एक के बाद एक भयंकर घटनाएँ होती जा रही हैं। चुनावों में बुनियादी समस्याओं की जगह इस पर बात होती है कि आप का खान-पान क्या है। राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं में भाषा से लेकर व्यवहार के हर पहलू में हिंसा बढ़ती जा रही है। अदीब इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी ऐतिहासिक भूमिका है कि वे इस देश को तबाह होने से बचाएँ।

एक सामान्य किसान या कामगार को भड़काना आसान होता है। देश, धर्म, जाति आदि कई हथियार हैं जिनसे एक आम आदमी को उसके शांत सामान्य जीवन से भटकाकर उसे हत्यारी संस्कृति में धकेल देना संभव है। ऐसा होता रहा है। जब तक यह सीमित स्तर तक होता है, उदारवादी लोग इसे दूर से देखते हैं और कुछ कह सुनकर बैठ जाते हैं। हमारे ज्यादातर लेखक कवि ऐसे ही हैं। पर जब बात यहाँ तक आ जाती है कि आस-पास समूची इंसानियत खतरे में दिखती हो तो यह लाजिम है कि साहित्यकारों को सोचना पड़े। सही है, 1984 में सब ने पुरस्कार नहीं लौटाए, 2002 में भी नहीं लौटाए। यह पुरस्कृत रचनाकारों की सीमा थी। शायद तब इतना साहस नहीं था जितना आज वे दिखला पा रहे हैं। यह भी है कि इनमें से अधिकतर को तब पुरस्कार मिले नहीं थे। वे इसे अलग-अलग तर्क देकर ठीक ठहराते होंगे। पर ये बातें कोई मायना नहीं रखतीं। आज सांप्रदायिक ताकतों का राक्षस हर अमनपसंद इंसान को निगलता आ रहा है। ऐसे में हमारे अदीब उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका को समझा है, यह महत्वपूर्ण बात है।

जो लोग भाजपा के समर्थक हैं या जो संघ परिवार की गतिविधियों को देश के हित में मानते हैं, उन्हें तकलीफ होती है कि उनके विरोध में इतनी आवाजें उठ रही हैं। कल्पना करें कि अफ्रीका के किसी मुल्क में बिना किसी तख्तापलट के देश के गृह मंत्री को अल्पसंख्यकों का कत्लेआम करवाने के लिए सज़ा--मौत हो जाती है। ऊपर की अदालत इसे आजीवन कारावास में बदल देता है और देश की सरकार कुछ वक्त तक अपने ही मंत्री को मृत्युदंड देने के लिए अदालत में पैरवी करती है। इस सरकार के साथ काम कर रहे पुलिस प्रमुख और दीगर अधिकारियों को फर्जी मुठभेड़ों के लिए कई सालों की कैद होती है। हमारी नस्लवादी सोच के लोग यही कहेंगे कि अरे ये अफ्रीकी ऐसे ही होते हैं, साले मारकाट करते रहते हैं। यही बात जब आज़ादी के बाद पहली बार हमारे देश में एक राज्य की सरकार के साथ होता है, और हमें कुछ भी ग़लत नहीं लगता तो यह गहरी चिंता की बात है। उल्टे सांप्रदायिक नफ़रत की संस्कृति बढ़ती चली है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि देश की सारी समस्याएँ अल्पसंख्यकों की वजह से हैं, जो कुल जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा हैं। विज्ञान और तर्कशीलता से दूर पोंगापंथी सोच को लगातार बढ़ाया जा रहा है। रचनाकारों का विरोध संघ परिवार के साथ जुड़े काडर को और आम लोगों को यह सोचने को मजबूर करेगा कि क्या वे सही रास्ते पर हैं।

आज़ादी के बाद पहली बार हम ऐसी स्थिति में हैं कि पाकिस्तान जैसे ग़लत माने जाने वाली विचारधारा के मुल्क के लोग खुद को हमारे नागरिकों से बेहतर मान सकते हैं। न केवल दानिशमंद अदीबों की हत्याएँ हुई हैं, महज इस अफवाह पर कि एक जानवर को मारा गया है, एक इंसान का कत्ल हुआ। बेशक गाय महज जानवर नहीं है, इसके साथ आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं, पर जब भीड़ कानून को अपने हाथ ले लेती है और यह आम बात बनती जा रही है तो सोचना लाजिम है कि हम कहाँ जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं पर जो भी कारवाई हो रही है, उस पर किसी को यकीन नहीं है। सरकार पर आम आदमी का कोई भरोसा नहीं रह गया है। ऐसे में अगर पढ़ने लिखने वाले लोग विरोध के तरीके न ढूँढें तो कोई उन्हें ज़िंदा कैसे कहे! सृजन बाद में आता है, पहले तो जीवन है। नफ़रत और हत्या की संस्कृति का विरोध ज़िंदगी की पहचान है। इसलिए हमारे अदीब विरोध में सामने आ रहे हैं। 1905 में बंगभंग के विरोध में रवींद्रनाथ साथी रचनाकारों के साथ सड़क पर उतर आए थे। बंगाल की अखंडता को लेकर तब उन्होंने कविताएँ और गीत लिखे थे जो आज तक पढ़े गाए जाते हैं। आज वक्त है कि हमारे कवि लेखकों को सड़क पर उतरना होगा। लोगों तक संवेदना के जरिए यह पैगाम ले जाना होगा कि इंसानियत को बचाए रखना है। विविधताओं भरी हमारी साझी विरासत को बचाए रखना है। तर्कशील तरक्कीपसंद भारत को बचाए रखना है।

कवि की यह तस्वीर सतीश कुमार ने रोहतक में क्लिक की थी।
(यह लेख दैनिक भास्कर के `रसरंग` में प्रकाशित हो चुका है।)

Monday, October 12, 2015

एक बस अपील...लौटा दीजिए पुरस्कार : शिवप्रसाद जोशी



साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने चाहिए. जिनके पास जिन जिन वक़्तों के पुरस्कार हैं. वे सब आगे आएं और अपने पुरस्कार लौटा दें. इस फेर में न फंसे कि इसका कोई मूल्य नहीं, कि ये निजी शहादत है, कि इसका कोई हासिल नहीं, कि पैसा कैसे चुकाएंगें, कि साहित्य अकादमी तो सरकारी यूं भी नहीं हैं आदि आदि. और इधर तो एक जालसाज़ी ये भी हो रही है कि कह रह हैं कीर्ति भी लौटाओ. जैसे कीर्ति वहां से अर्जित हुई होगी. पूरा हिसाबकिताब ऐसे ढंग से पेश किया जा रहा है कि ख़बरदार अगर लौटाया तो ये हिसाब ध्यान रखना. ऐसी बेशर्मी, ऐसी ख़ुराफ़ात, ऐसा मज़ाक, ऐसी अपमान और ऐसा फ़ाशीवादी रवैया इस देश में आन पड़ा है तो क्या अचरज?

वरिष्ठो, आगे आइए और ये पुरस्कार लौटा दीजिए. इसके गहरे निहितार्थ होंगे. आप सब जानते हैं. दुनिया भर के लोगों में संदेश जाएगा. जा रहा है. प्रतिरोध आंदोलनों को मज़बूती मिलेगी. लोग और जुटेंगे. एक बड़ी अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का समर्थन होगा. एक चेन बनेगी. विश्व शक्तियों की नई धुरियों का नया जनतांत्रिक और अवाम केंद्रित विलोम तैयार होगा. आप पुकारे जाएंगें. आपको सलाम होगा. 

और हम, साथियो, हम लोग न ताकें न रुकें न चुप रहें. बोलें. भरसक. लिखें. आश्वासन और राहतें और छलावे और पेशकशें और ऑफ़र लौटा दें. सरकारों को ख़बरदार करें. आपने यूं ही जन्म नहीं लिया है. एक सार्थक जीवन की परिभाषा और उद्देश्य क्या होता है. ये बताने का पुरज़ोर समय है. हम लोग दलाली नहीं कर सकते हैं. हमारे वरिष्ठ दलाल नहीं हो सकते हैं. हम लोग मनुष्य हैं और हम लोगों का एक जीवन है जो सुंदर है जिसमें प्रेम है, परिवार है परिजन और दोस्त और संबंधी हैं, और ये सारी की सारी दुनिया है. हम लोग ख़ुशकिस्मत हैं फिर घेरा डाले हुए हमारे आसपास ये ताक़तें कौन हैं. ये हमारा अच्छा बुरा क्यों तय करेंगी, हम खुद क्यों नहीं? इन घेरों की जगह तो हमारी सदियों से बनाई हुई मनुष्यता के डेरे होने चाहिए.

लोग सवाल कर रहे हैं और इस विश्वव्यापी प्रायोजित जय-जय के बीच संदेह में हैं. कि आखिर ये जयगान उस देश से आ रहा है जहां मांस और इंसान के बीच जीवन और मौत का संघर्ष चल रहा है. पूंजीवादी व्यवस्थाएं जब फ़ाशीवाद से गठबंधन करती हैं तो ऐसा ही होता है. ऐसा इस देश की प्राचीनता में नहीं हुआ था. इतिहास की विकृति हावी है. और ये कहने वाले लोग कम होते जा रहे हैं कि भारत में ऐतिहासिक सच्चाई ये है कि यहां मांस खाया जाता था.
अब इस मांस भक्षण का विरोध इतना प्रबल है कि मनुष्य भक्षण पर आमादा ताक़तें फैल गई हैं और उन्होंने जैसे विचार पर ही क़ब्ज़ा कर लिया है. 

लोग या तो मांस के नाम पर मारे जा रहे हैं या महिमा न करने के अपराध में. अगर आप अनवरत जयजय में शामिल नहीं हैं तो आप समाज विरोधी, जाति विरोधी, धर्म विरोधी और देशद्रोही हैं.

तो साथियो, जो किसी भी तरह की फ़ाशीवादी सुविधा के घेरे में हैं उन्हें छोड़ें, जिनके पास सरकार के दिए पुरस्कार हैं, उन्हें लौटा दें. भले ही वो किसी भी पार्टी या समूह या गठबंधन की सत्ता के दौरान के हों. या किसी और दौर के.
आज क्या कर सकते हैं और किस चीज़ का क्या अर्थ हो सकता है, इसे सोचें. लेकिन इसमें आगामी जीवन का मोलभाव न सोचें. आगामी सिर्फ़ मौत है या उससे कम कोई दयनीय हालत. आप हंसेंगे, दैनन्दिन काम निपटाएंगें, दावतों में जाएंगें, घरबार करेंगें लेकिन मौत आपके साथ ऐसे चलेगी जैसे आप उसकी गिरवी रखी हुई कोई चीज़ हों.
वरना तो मौत स्वाभाविक रूप से आती ही है. आकस्मिक भी आती है, और लड़कर भी.... लेकिन आप उस समय इंसान होते हैं- विवशता, इच्छा, लालच, किंकर्तव्यविमूढ़ता, फ़र्माबरदारी और जहालत से भरा हुआ कोई बोरा नहीं जिसे किसी ने जीवन के कगार से हमेशा हमेशा के लिए धकेल दिया हो.


पेंटिंग : Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas

Tuesday, September 29, 2015

एक अपराजेय का जाना : मंगलेश डबराल


अब ऐसे लोगों का होना बहुत कम हो गया है, जिनसे, बकौल शमशेर बहादुर सिंह, ‘जिंदगी में मानी पैदा होते हों।’ वीरेन डंगवाल ऐसा ही इंसान था, जिससे मिलना जीवन को अर्थ दे जाता था। वीरेन पहली भेंट में अपनी नेकदिली की छाप मिलने वाले के दिल में छोड़ देता था। वह प्रसन्नता की प्रतिमूर्ति था-दोस्तों की संवेदना को सहलाता हुआ, उन्हें धीरज बंधाता हुआ। यह उसकी जीवनोन्मुखता ही थी कि तीन साल तक वह कैंसर से बहादुरी के साथ लड़ता रहा। बीमारी के दिनों में उसे देख हेमिंग्वे के उपन्यास द ओल्ड मैन ऐंड द सी का यह वाक्य याद आता था कि ‘मनुष्य को नष्ट किया जा सकता है, पर उसे पराजित नहीं किया जा सकता।’ वीरेन चला गया, पर यह जाना एक अपराजेय व्यक्ति का जाना है।
वीरेन के जीवन पर यह बात पूरी तरह लागू होती थी कि एक अच्छा कवि पहले एक अच्छा मनुष्य होता है। कविता वीरेन की पहली प्राथमिकता भी नहीं थी, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और इंसानियत के भविष्य के प्रति अटूट आस्था का ही एक विस्तार, एक आयाम थी, उसकी अच्छाई की महज एक अभिव्यक्ति और एक पगचिह्न थी। तीन संग्रहों में प्रकाशित उसकी कविताएं अनोखी विषयवस्तु और शिल्प के प्रयोगों के कारण महत्वपूर्ण हैं, जिनमें से कई जन आंदोलनों का हिस्सा बनीं। उनकी रचना एक ऐसे कवि ने की है, जो कवि-कर्म के प्रति बहुत संजीदा नहीं रहा। यह कविता मामूली कही जाने वाली चीजों और लोगों को प्रतिष्ठित करती है, और इसी के जरिये जनपक्षधर राजनीति भी निर्मित करती है।
वीरेन की कविता एक अजन्मे बच्चे को भी मां की कोख में फुदकते रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पिचकते, कोई शरारत भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है, दोस्तों की गेंद जैसी बेटियों को अच्छे भविष्य का भरोसा दिलाती है और उसका यह प्रेम मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, वनस्पतियों, फेरीवालों, नींबू, इमली, चूने, पाइप के पानी, पोदीने, पोस्टकार्ड, चप्पल और भात तक को समेट लेता है। वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर शमशेर जैसे क्लासिकी ‘सौंदर्य के कवि’ हैं, तो दूसरा सिरा नागार्जुन की देशज, यथार्थपरक कविता से जुड़ता है। दोनों के बीच निराला हैं, जिनसे वीरेन अंधेरे से लड़ने की ताकत हासिल करता रहा। उसकी कविता पूरे संसार को ढोनेवाली/नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत की पहचान करती हुई कविता है, जिसके विषय वीरेन से पहले हिंदी में नहीं आए। वह हमारी पीढ़ी का सबसे चहेता कवि था, जिसके भीतर पी टी उषा के लिए जितना लगाव था, उतना ही स्याही की दावात में गिरी हुई मक्खी और बारिश में नहाए सूअर के बच्चे के लिए था। एक पेड़ पर पीले-हरे चमकते हुए पत्तों को देखकर वह कहता है, पेड़ों के पास यही एक तरीका है/यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं। मीर तकी मीर ने एक रुबाई में ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की है, जो ‘सचमुच मनुष्य हो, जिसे अपने हुनर का अहंकार न हो, जो कुछ बोले, तो पूरी दुनिया सुनने को इकट्ठा हो जाए और जब वह खामोश हो, तो लगे कि दुनिया खामोश हो गई है।’ वीरेन की शख्सियत कुछ ऐसी ही थी, जिसके खामोश होने से जैसे एक दुनिया खामोश हो गई है।
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(अमर उजाला से साभार)

वीरेन डंगवाल की याद कचोटती रहेगी : शिवप्रसाद जोशी


 
साठ के दशक के फ़ौरन बाद की हिंदी कविता के जिन कवियों का नई पीढ़ी से सबसे ज़्यादा नाता थाः वो त्रयी वीरेन डंगवाल, असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल की रही है.

वीरेन ठिकानेदारों को ठिकाने लगाने वाले कवि थे. उन्होंने कई मतलबियों, नकलचियों और चतुरों के तेवर उतारे हैं. उनकी बातों में इतनी तीक्ष्णता और इतना पैनापन और इतना आवेग था.

हिंदी कविता में वो मोमेंटम के सबसे बड़े कवि थे. उनके न रहने से सबसे ज़्यादा नुकसान नई पीढ़ी को हुआ है.
अपनी बातों, अपनी कविता, अपनी सलाहों और अपनी झिड़कियों से वे एक पेड़ बन गए थे. उस पेड़ की छांह अब स्मृति में चली गई है.

वीरेन डंगवाल ने उत्तर भारत की हिंदी पत्रकारिता को भाषा और व्यक्ति दोनो दिए. उनके शागिर्दों का एक अभूतपूर्व फैलाव है. वे प्रिंट से लेकर टीवी और रेडियो तक बिखरे हुए हैं. उनमें से कई लोग अत्यन्त कामयाब जीवन में आए हैं और एक भव्य भविष्य की ओर उन्मुख हैं. वे भी आज वीरेन के न रहने पर निश्चित ही चुपके चुपके रो न भी रहे हों तो एक असहाय धक्के में आ गए होंगे. ये धक्का वे निकाल नहीं पाएंगें. ऐसी उपस्थिति की शर्त के साथ वीरेन ने अपनी शख़्सियत का जादू फैलाया था.

वीरेन लटकी हुई कथित उदासियों पर गुलेल खींच कर भौंचक करने वाले कवि पत्रकार थे. वो नकली नैराश्य के विरोधी थे और उन्होंने एक अपना मार्क्सवाद विकसित किया था. वीरेन की आवाज़ एक ऐसी नाव थी जो मुसीबत के मारों को किनारे छोड़ आती थी. फिर वो मुसीबत प्रेम करने वालों की हो या नौकरी के लिए दर दर भटकने वालों की या सामाजिक लड़ाइयों में इंतज़ार की.

इस तरह उन्होंने संघर्ष को एक लोकप्रिय विधा में बदल दिया.

उन्हें समझने वालों और उन्हें मानने वालों ने संघर्ष के पानी से प्यास बुझाई. ऐसा विवेक भरने वाले वीरेन डंगवाल, इसीलिए स्मृति को कचोटते रहेंगें.

Wednesday, January 14, 2015

पिथागोरस का प्रमेय - सब्ब बेद में बा : आशीष लाहिड़ी



(बांग्ला अखबार 'एई समय' में प्रकाशित आशीष लाहिड़ी के लेख का वरिष्ठ कवि व वैज्ञानिक लाल्टू का किया अनुवाद। आशीष लाहिड़ी नैशनल काउंसिल ऑफ साइंस म्युज़ियम में विज्ञान के इतिहास के अध्यापक हैं)


वैज्ञानिक मेघनाद साहा कम उम्र में ही ताप-आधारित आयनीकरण की खोज 

कर दुनिया भर में प्रख्यात हो चुके थे। उनका मन हुआ कि बचपन के गाँव 

जाकर आम लोगों से बातचीत कर आएँ। एक बूढ़े वकील ने उनसे पूछा, 'बेटा,  

का खोजा है तुमने कि एतना नाम हो गया।' मेघनाद ने समझाने की कोशिश की 

कि सूरज के प्रकाश में रंगों का विश्लेषण कर वहाँ मौजूद या जो मौजूद नहीं हैं,
  
उन तत्वों को जानने का तरीका निकाला है। सुनकर उम्रदराज वकील साहब 

बोले, 'हँ:, इसमें नया का है, सब्ब बेद में बा।'

बीजेपी के सत्ता में आने के बाद यह 'सब्ब बेद में बा' बात काफी फैल चुकी है। 

ताप-आधारित आयनीकरण की जगह पिथागोरस के प्रमेय या अंग 

ट्रांस्प्लांटेशन (गणेश इसके प्रमाण हैं) ने ले ली है। एन आर आई की ताकत के 

बल पर पहलवान बने बजरंगबली की पूँछ में तीन ''शालें धू-धू जल रही हैं
  
मनी, मैनेजमेंट, मीडिया। हाल में इस मशाल की लपटें विज्ञान महासभा तक 

धधक उठीं। भले लोग आतंकित हैं। पर अगर ऐसा नहीं होता तो क्या हिसाब 

ठीक रहता? पढ़े लिखे लोगों ने बीजेपी से इससे अलग और क्या अपेक्षा रखी 

थी? पिछली बार बीजेपी के सत्ता में आने पर विश्वविद्यालयों में ज्योतिष (हस्तरेखा)-

'विज्ञान' को अलग विषय मानकर पढ़ाना लगभग चालू ही हो गया था। नार्लिकर 

समेत दीगर वैज्ञानिकों ने विरोध जताया था। यह सब जानकर ही तो पढ़े लिखे 

लोगों ने बीजेपी को सत्ता दी है। तो फिर बंधु अब क्यों चीखो मम्मी, मम्मी...!'
 
सवाल प्रधानमंत्री या बीजेपी के आचरण का नहीं है। सवाल यह है कि लोग 

आज क्यों चौंक रहे हैं? इसमें बड़ी बेईमानी है। अगर बीजेपी सत्ता में नहीं भी 

होती, तो क्या देश के लोगों के बड़े हिस्से की, वैज्ञानिकों की भी, आस्था क्या 

ऐसी ही नहीं है? सब्ब बेद में होने की परंपरा तो आधुनिक हिंदू-चेतना में 

अमिट, अमर है। विद्यासागर ने 1853 में कहा था, 'भारत के पंडितों' के लिए 

वैज्ञानिक सच गौण हैं, गैरज़रूरी हैं, वे यह देखते हैं कि इस सच के साथ हिंदुओं 

के शास्त्रों के किसी विचार का सही या कल्पित मेल कितना है। अक्षय दत्त ने 

आजीवन ऐसे खयालों का विरोध करते हुए खुद को समाज से बहिष्कृत तक 

करवा लिया, पर क्या इससे किसी का विचार बदला? जी नहीं, अगर बदला 

होता तो विवेकानंद क्यों कहते कि न्यूटन के जन्म के एक हजार साल पहले ही 

हिंदुओं ने गुरुत्वाकर्षण की खोज कर ली थी। विवेकानंद के हमउम्र प्रकांड 

विद्वान योगेशचंद्र राय विद्यानिधि ने इसका विरोध करते हुए कहा था, 'कम 

जानकारी रखने वाले कुछ लोग भास्कराचार्य के कथन पेश कर न्यूटन के महत्व 

को कम करना चाहते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि दोनों में ज़मीं आस्मान का 

फर्क है। मेघनाद साहा स्वभाव से तीखा लिखते थे, 'इस देश में कई लोग 

सोचते हैं कि ग्यारहवीं सदी में भास्कराचार्य गुरुत्वाकर्षण पर धुँधला सा कुछ 

कह गए तो वे न्यूटन के बराबर हो गए। और न्यूटन ने नया क्या किया है? पर ये 
  
'नीम हकीम खतरे जान' वाले श्रेणी के लोग भूल जाते हैं कि भास्कराचार्य ने 

कहीं यह नहीं कहा कि धरती और दीगर ग्रह सूरज के चारों ओर अंडाकार परिधि 

में घूम रहे हैं। उन्होंने कहीं यह सिद्ध नहीं किया कि गुरुत्वाकर्षण और गति के 

नियमों को जोड़कर धरती और दीगर ग्रहों के गति-कक्ष पता लगाए जा सकते 

हैं। इसलिए भास्कराचार्य या कोई हिंदू, ग्रीक या अरब केप्लर-गैलीलिओ या 

न्यूटन के बहुत पहले ही गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज चुके हैं, ऐसा कहना 

पागल का प्रलाप ही होगा। बदकिस्मती से इस मुल्क में ऐसे अंधविश्वास फैलाने 

वाले लोगों की कमी नहीं है, ये लोग सच के नाम पर महज खाँटी झूठ फैला रहे 

हैं।'





इससे हमारी निष्क्रिय चेतना पर कोई खरोंच पड़ी क्या? नहीं, अगर पड़ती तो 

हिग्स बोज़ोन की खोज के बाद देश के उच्च-शिक्षित लोग क्यों कह रहे थे कि 

अब भारत ने जो वेदांतिक सच खोजा था, वह सिद्ध हुआ।





1961 में रवींद्रनाथ की विज्ञान-चेतना की चर्चा करते हुए परिमल गोस्वामी ने 

लिखा था, 'प्राचीन भारत में सब कुछ ग्रामीण मान्यताओं पर आधारित था, इस 

देश में विज्ञान के आने के बाद कई पढ़े-लिखे लोगों में इसका असर दिखने 

लगा था।... बिना प्रमाण और तर्क के कई बार ऐसा कहा गया है कि आधुनिक 

यूरोपी विज्ञान असल में प्राचीन भारतीय विज्ञान के एक छोटे से हिस्से की खोज 

मात्र है। मेरे विचार में बंगाल में आधुनिक विज्ञान को पूरी आस्था के साथ 

स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति अक्षयकुमार दत्त थे। पर अकेले उनके प्रचार 

की औकात ही क्या कि वह नए उभरते घमंड के बनिस्बत तर्कशीलता की 

प्रतिष्ठा करे। रवींद्रनाथ के वक्त झूठे घमंड में बढ़ोतरी होती चली थी।' और 

इसके विरोध में रवींद्रनाथ ने वयंग्य के औजार की मदद ली थी। हेमंतबाला को 

लिखे अमर ख़तों में रवींद्रनाथ ने इस मूढ़ता की जम कर खिंचाई की थी। क्या 

उस तिरस्कार कोई असर हम पर पड़ा था? नहीं। किसी भी बात से हम पर 

कोई असर नहीं पड़ने वाला।


1891 में ज्योतिराव फुले ने लिखा था, 'कुछ साल पहले मराठी में लिखी एक 

पुस्तक में मैंने ब्राह्मणों के संस्कारों के असली रुप की पोल खोली थी।' उसी 

महाराष्ट्र में गणेश आगरकर ने लिखा था, 'इंसान के चमड़े के रंग से उसकी 

काबिलियत कैसे पहचानी जा सकती है? इस चतुर्वर्ण प्रथा को किसने शुरू 

किया? किस ने यह अतिवादी कथा चलाई कि ब्राह्मणों का जन्म 'समाजपुरुष'  

नामक किसी पुराणकल्पित आदमी के मुँह से और अछूतों का उसके पैर से 

जन्म हुआ? ऐसे अन्यायी शास्त्रों का विनाश हो।' विनाश हुआ क्या? नहीं। 

इसीलिए फुले-आगरकर की चेतावनी के सौ सालों से भी ज्यादा समय के बाद 

उसी महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथों तर्कशील जनसेवक चिकित्सक 

नरेंद्र दाभोल्कर की मौत हुई। सनातन धर्म संस्था के सिद्धांतों के नेता डा.  

जयंत अठवले ने अपनी निजी मानविकता का ब्रांड दिखलाते हुए सार्वजनिक 

रूप से कहा, हत्यारे के हाथों मारा जाना दाभोलकर का कर्मफल है; अच्छा ही 

हुआ, डॉक्टर की छुरी सहकर, ऑपरेशन टेबल पर मरने से तो यह तो बेहतर 

है! उस प्रांत के कुछ वैज्ञानिकों के अलावा हममें से और किसी के सीने में कहीं 

कोई आग धधकी? नहीं धधकी। रोशनी नहीं चमकी।
 
हाँ, यह मानना पड़ेगा कि अंधविश्वास और अंधविश्वास मौसेरे भाई हैं। 

हिंदुत्ववादी सब्ब वेद में है कहकर जो हुंकार देते हैं, उसकी बिल्कुल एक जैसी 

प्रतिध्वनि पश्चिमी सीमा के पार सुनाई पड़ती है। बस 'बेद' की जगह वे 'कुरान'  

कहते हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध नाभिकीय भौतिकी के माहिर परवेज हूदभाई ने 

इसके कुछ नमूने पेश किए हैं। जैसे 'इस्लामाबाद में विज्ञान सम्मेलन में एक 

जर्मन प्रतिनिधि ने कहा कि उन्होंने गणितीय टोपोलोजी का इस्तेमाल कर सिद्ध 

कर दिया है कि वे 'अल्लाह का कोण' माप सकते हैं। यह है पाई बटा n, जहाँ 

पाई का मान है 3.1415927... और n का मान अनिश्चित है। पाठक इस 

बात को मानने से इन्कार कर सकते हैं। सही है, ऐसा अजीब हिसाब किसी के 

दिमाग में कैसे आ सकता है? पर पाकिस्तान के विज्ञान और प्रौद्योगिकी 

मंत्रालय के इस्लामी विज्ञान सम्मेलन के संक्षिप्त विवरण-ग्रंथ (1983) के पृ

82 को देखिए। अगर देखें तो अपनी ही आँखों पर यकीन नहीं कर पाएँगे। 

पाठक यह भी जान लेंगे कि इस पागल को पाकिस्तान सरकार ने निमंत्रण कर 

उसकी आवभगत का खर्च तक उठाया था। सवाल उठ सकता है कि इस 

आदमी को ईश निंदा के ज़ुर्म में क्यों नहीं पकड़ा गया? इसकी दो वजहें हैं। एक 

तो इस आदमी की ऊल-जलूल बातें (जो छपी हैं) ऐसी निरर्थक हैं, कि वह 

किसी के समझ नहीं आ सकतीं। दूसरी बात यह कि उस सभा में वे अकेले ऐसे 

पागल नहीं थे।' क्या मुंबई विज्ञान कॉंग्रेस की सभा में मौजूद विद्वान जन हूदभाई 

की इस पुरानी टिप्पणी से वक्त रहते कोई सीख ले पाए?

इसलिए, बीजेपी का काम बीजेपी कर रही है, इससे दुखी होने का नाटक करने 

से पहले, हे साधुजन, अपनी नज़र साफ करो।