Sunday, July 2, 2017

गैर राजनीतिक उपन्यास एक मिथक है : अरुंधति रॉय

तीन विभिन्न अंग्रेजी साक्षात्कारों से ली गईं चुनिंदा टिप्पणियां - 1

रूपांतर : शिवप्रसाद जोशी

-गैर राजनीतिक उपन्यास नहीं लिखा जा सकता है. ये एक मिथक है. मैं मानती हूं कि हर छोटी परी कथा भी किसी न किसी रूप में राजनीतिक होती है. जब आप किसी चीज़ से परहेज़ करते हैं, तो वो भी उतना ही राजनीतिक है जितना कि उस चीज़ को संबोधित करना.
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-मेरे लिए, कहानी कहने का तरीका भी कहानी जितना ही महत्त्वपूर्ण है. जब आप कश्मीर जैसी जगहों के बारे में लिखते हैं, या मध्य भारत के जंगलों में जो हो रहा है उसके बारे में लिखते हैं, जिस किसी चीज़ के बारे में.....मैं कहती रही हूं कि फ़िक्शन एक सत्य है. क्योंकि इन जगहों में जो घटित हो रहा है, उस आतंक को सिर्फ़ रिपोर्ताज और प्रमाण आधारित रिपोर्टिंग या फुटनोट्स से समझाना, कभीकभार मुमकिन नहीं होता है. ख़ुद फ़िज़ां और वो लोगों को क्या करने करे लिए विवश करती है और आपको उस ख़ौफ़ के साथ कैसे बसर करनी होती है, सालोंसाल उसके साथ कैसा एडजस्ट करना होता है, तो ये दास्तान वास्तव में सिर्फ़ फ़िक्शन ही सुना सकता है.
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-अपने राजनीतिक लेखन में अक्सर ही मैं वास्तव में अपने लेखन से ज़्यादा आक्रोश महसूस करती हूं. जब मैं फ़िक्शन लिखती हूं तो मैं अपनी देह में बिल्कुल अलग व्यक्ति की तरह होती हूं. फ़िक्शन लिखते हुए मुझमें एक बड़ी शांति रहती है. हो सकता है ये अवचेतन में हो, लेकिन ऊपरी तौर पर मैं किसी ऑडियंस या पाठक या किसी और चीज़ के बारे में नहीं जानती हूं. मैं उसके स्वागत को लेकर बहुत ज़्यादा नहीं सोच रही होती हूं.
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-हाल में, विदेशी संवाददाताओ के एक दल के साथ, मैं दिल्ली में थी. भारत में जो कुछ हो रहा है और उसे कम्यूनिकेट करने की असमर्थता से वे लगभग सदमे में थे. क्योंकि वो चीज़ बॉलीवुड और मुक्त बाज़ार और बढ़ती इकोनमी के शोर में दबी हुई है....(उधर)..सैकड़ों हजारों राजनैतिक कार्यकर्ता भारत को उस बिंदु पर ले आ रहे हैं जहां उसे लगभह हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया गया है. मैं लोगों से कहती थी कि अगर भारतीय बाजार पूरी तरह खुला न होता, और भारत एक बड़ी वित्तीय ठिकाना न होता, तो हम आज जनसंहार और रासायनिक हथियारों और सड़कों में पीट पीटकर मार डालने की वारदातों, दलितों पर चाबुक बरसाने की वारदात के बारे में लिख रहे होते. अभी तो ऐसी भीड़ और ऐसे विजिलांटी हैं जो मुसलमानों की दाढ़ी खींच रहे हैं, उन्हें हिंदू नारे कहने पर मजबूर कर रहे हैं, लोगों को पीट पीटकर खत्म कर रहे हैं.
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-मुक्त बाज़ार इस सब के लिए जिम्मेदार नहीं है लेकिन मुक्त बाजार इस सब को शक्ति मुहैया कराता है. जो अवसर वो हासिल कराता है, अंतरराष्ट्रीय वित्त, ये उस तथ्य को धीरे धीरे ढक देते हैं कि क्रूरता और धर्मांधता का एक स्तर है.. अगर किसी दूसरे देश में, हजारों लोगों के कत्ल की कोई अगुवाई कर रहा होता, मुसलमानों को शरणार्थी शिविरों में धकेला जा रहा होता, तो बाहरी दुनिया में इसे अलग ढंग से लिया जाता. लेकिन अब भारत मार्केट फ्रेंडली, बॉलीवुडीय, धुंधला सा नाज़ुक गुदगुदा खिलौना है.
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-अमेरिका में बेलगाम पूंजीवाद के लिए कच्चा माल दूसरे देशों पर युद्ध थोपकर निकाला जा सकता है. भारत जैसे देशों में हम खुद का उपनिवेशीकरण कर ऐसा कर रहे हैं. मैं सिर्फ रूपक में नहीं कह रही हूं. मैं कहती हूं कि मध्य भारत के जंगल, अर्धसैनिक बलों से भरे हुए हैं जो स्थानीय लोगों को अपनी जमीन से बेदख़ल करने की कोशिश कर रहे हैं. सरकार के बहुत नजदीक एक व्यक्ति ने कहा कि “अफ्रीकी लोग सड़कों पर पीटे जा रहे हैं, मार डाले जा रहे हैं, भारत को नस्ली बताया जा रहा है,” तो उसने कहा, “हम नस्ली कैसे हो सकते हैं. हम इन काले दक्षिण भारतीयों के साथ भी तो रहते हैं.” हजारों किसान और आदिवासी जन, देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद है क्योंकि वे अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं और वे जमीनें खनन कंपनियों को सौंपी जा रही हैं. जो वहां हो रहा है और बाहर भारत की जो छवि है, उन दोनों में एक गहरा विच्छेद है.
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(स्लेट डॉट कॉम में इसाक शोटनर से बातचीत के अंश)
`समयांतर` से साभार

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